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{600 येषां न कश्चित् त्रसति, त्रस्यन्ति न च कस्यचित्। येषामात्मसमो लोको दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥
(वि. ध. पु. 2/122/16) जो न तो किसी अन्य को त्रास/पीड़ा देते हैं, और न ही किसी से त्रस्त होते हैं, संसार को आत्म-तुल्य दृष्टि से देखने वाले वे लोग दुर्गम संकटों को पार कर लेते हैं।
{61} अहिंसा सर्वधर्माणां धर्मः पर इहोच्यते। अहिंसया तदाप्नोति यत् किंचिन्मनसेप्सितम्॥
(वि. ध. पु. 3/268/1) सभी धर्मों में श्रेष्ठ धर्म 'अहिंसा' कही जाती है। अहिंसा के द्वारा व्यक्ति अपना सब क कुछ अभीप्सित प्राप्त कर सकता है।
{62} अहिंस्रः सर्वभूतानां यथा माता यथा पिता।। एतत् फलमहिंसाया भूयश्च कुरुपुंगव। न हि शक्या गुणा वक्तुमपि वर्षशतैरपि।
___(म.भा.13/116/31-32) हिंसा न करने वाला मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियों के माता-पिता के समान है। ये सब * अहिंसा के फल हैं। यही क्या, अहिंसा का तो इससे भी अधिक फल है। अहिंसा से होने
वाले लाभों या गुणों का तो सौ वर्षों में भी वर्णन नहीं किया जा सकता।
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{63}
धर्मे रताः सत्पुरुषैः समेताः, तेजस्विनो दानगुणप्रधानाः। अहिंसका वीतमलाश्च लोके, भवन्ति पूज्या मुनयः प्रधानाः॥
(म.भा. 2/109/31) जो कभी किसी प्राणी की हिंसा नहीं करते तथा जो (हिंसा आदि के) मलसंसर्ग से जा रहित हैं, ऐसे धर्म-तत्पर, तेजस्वी सत्पुरुषों की संगति करने वाले श्रेष्ठ मुनि ही संसार में
पूजनीय होते हैं।
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अहिंसा कोश/17]