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आमुखम्
प्रस्तुताध्ययनस्य नामास्ति 'शस्त्रपरिज्ञा'।' अस्य
प्रस्तुत अध्ययन का नाम है 'शस्त्रपरिज्ञा।' इसका प्रतिपाद्य प्रतिपाद्यो विषयो 'जीवसंयमः' ।। स च अहिंसा । उक्तं विषय है जीव-संयम और वह है अहिंसा । दशवकालिक सूत्र में कहा च दशवकालिकसूत्रे-'अहिंसा निउणं दिट्ठा, सव्वभूएसु है-'महावीर ने सूक्ष्म रूप से देखा है, सब जीवों के प्रति संयम संजमो।"
रखना अहिंसा है।' नियुक्तिकृता अस्य चत्वारोऽर्थाधिकाराः प्रति- नियुक्तिकार ने इसके चार अर्थाधिकारों का प्रतिपादन किया पादिताः१. जीवः ।
१. जीव । २. षड्जीवकायप्ररूपणा ।
२. षड्जीवकाय-प्ररूपणा। ३. बन्धः ।
३. बन्ध । ४. विरतिः ।
४. विरति । एते अर्थाधिकाराः जैनदर्शनस्य आचारशास्त्रीय ये अर्थाधिकार जैन दर्शन के आचारशास्त्रीय दृष्टिकोण को दष्टिकोणमुपस्थापयन्ति । आचार:-परिज्ञा विरतिः प्रस्थापित करते हैं। आचार का अर्थ है-परिज्ञा, विरति अथवा संयमो वा। स च सप्तदशविधः। तत्र नवविधः संयमः संयम । संयम सतरह प्रकार का है। उसमें नौ प्रकार का संयम षडजीवनिकायमाश्रित एव । स च जीवास्तित्वावबोधे षड्जीवनिकाय से संबंधित है। वह संयम जीव का अस्तित्व-बोध सति भवति । तेन संयमस्याधारभूताश्चत्वारो वादा उप- होने पर होता है । इस विमर्श से संयम के आधारभूत चार वादों का नताः-आत्मवादः, लोकवादः, कर्मवादः, क्रियावादश्च ।। प्रतिपादन हुआ- आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद । जीवस्यास्तित्वं तत्र प्रतिपक्षभूतस्याजीवस्य अस्तित्वं । जीव का प्रतिपक्षी है अजीव । जीव का अस्तित्व अजीव के अस्तित्व विना न हि सिद्धयति ।
के बिना सिद्ध नहीं होता। तेन आत्मवादवल्लोकवादोऽपि संयमस्याधारभूतो- इसलिए आत्मवाद की भांति लोकवाद भी संयम का आधारऽस्ति ।' सप्तदशविधे संयमे दशमः संयमः अजीवकाय- भूत तत्त्व है। सतरह प्रकार के संयम में दसवां प्रकार है-अजीवसंयम एव । कर्मवादो बन्धं समाश्रितः। बन्धस्य हेतु: काय संयम । कर्मवाद का आधार है बंध । बन्ध का हेतु हैक्रियावादः।
क्रियावाद। आचारांगं ब्रह्मचर्यस्य प्रतिपादकमस्ति । ब्रह्मचर्यम् आचारांग सूत्र ब्रह्मचर्य का प्रतिपादक है। ब्रह्मचर्य का अर्थ —आत्मविद्या तदाश्रितमाचरणं वा । एतस्मिन् अध्यात्म
है-आत्मविद्या या आत्मविद्याश्रित आचरण। इस अध्यात्मशास्त्र शास्त्र विरतिरेव आचाररूपेण स्वीकृतास्ति ।। में विरति को ही आचाररूप में स्वीकृत किया गया है। ___ कर्मसमारम्भपरिज्ञा विरतिः । विरतिमूलकस्य कर्मसमारम्भ की परिज्ञा-विवेक करना विरति है। विरतिआचारस्य इयमेव निष्पत्तिः-मुनिना कर्मसमारम्भ
मूलक आचार की यही निष्पत्ति है-मुनि को कर्मसमारम्भ की परिज्ञा कर्तव्या।
परिज्ञा करनी चाहिए। १. आचारांग नियुक्ति, गाथा ३१ ।
पंचिदियसंजमे अजीवकायसंजमे पेहासंजमे उपहासंजमे २. वही, गाथा ३३ ।
अवहट्टसंजमे पमज्जणासंजमे मणसंजमे वइसंजमे कायसंजमे । ३. दसवेआलियं, ६८।
६. आयारो, ११५। ४. आचारांग नियुक्ति, गाथा ३५ :
७. द्रष्टव्यं-आयारो ११५ का टिप्पण । जीवो छक्कायपरूवणा य तेसि वहे य बंधोत्ति ।
८. आयारो, १६। विरईए अहिगारो, सत्यपरिणाए णायध्वो ॥
९. अंगसुत्ताणि १, समवाओ, ९४३ : नव बंभचेरा पण्णता, तं ५. अंगसुत्ताणि १, समवाओ १७१२:
जहा-संगहणी गाहासत्तरसबिहे संजमे पण्णत्ते, तं जहा-पुढवीकायसंजमे सत्थपरिण्णा लोगविजओ, सीओसणिज्ज सम्मत्तं । आउकायसंजमे तेउकायसंजमे बाउकायसंजमे वणस्सइ
आवंती धुतं विमोहायणं, उवहाणसुयं महपरिण्णा ॥ कायसंजमे बेइंदियसंजमे तेइंदियसंजमे चरिदियसंजमे १०. आयारो, १७॥
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