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अ० ३. शीतोष्णीय, उ० १-२. सूत्र २०-२६
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भाष्यम २३-पुरुष: द्विविधो भवति-रागचरितः पुरुष दो प्रकार के होते हैं-राग का आचरण करने वाले और द्वेषचरितश्च । तत्र रागी रागेण दृश्यते, द्वेषी द्वेषेण द्वेष का आचरण करने वाले । रागी राग से पहचाना जाता है और दृश्यते । वीतरागः पुरुषः एताभ्यां द्वाभ्यामपि न दृश्यते। द्वेषी द्वेष से पहचाना जाता है। वीतराग पुरुष इन दोनों से नहीं तस्य न रागजनिताः प्रवृत्तयः प्रत्यभिज्ञानं भवन्ति, न च पहचाना जाता ! उसकी पहचान न रागयुक्त प्रवृत्तियों से और न द्वेषजनिताः । अत एव स एताभ्यामन्ताभ्यां अदृश्यमानो द्वेषजनित प्रवृत्तियों से होती है। इसलिए वह इन दोनों अन्तों से भवति ।
अदृश्यमान होता है। अन्तः--स्वभावो निश्चयो वा।
अन्त का अर्थ है-स्वभाव अथवा निश्चय ।
२४. तं परिणाय मेहावी।
सं०-तं परिज्ञाय मेधावी। राग-द्वेष अहितकर हैं, यह जानकर मेधावी उनका अपनयन करे।
भाष्यम् २४.--स्वपनमहिताय भवति जागरणञ्च सोना अहित के लिए होता है और जागना हित के लिए यह हिताय इति परिज्ञाय मेधावी जागरणार्थं रागद्वेषापनो- जानकर मेधावी मुनि जागरण के लिए अथवा राग-द्वेष के अपनयन के दाय वा प्रयतेत ।
लिए प्रयत्न करे।
२५. विदित्ता लोगं, वंता लोगसण्णं से मइमं परक्कमेज्जासि । -त्ति बेमि ।
सं०-विदित्वा लोक वान्त्वा लोकसंज्ञां स मतिमान पराक्रमेत । -इति ब्रवीमि । मतिमान पुरुष विषयलोक को जानकर, लोकसंज्ञा-विषयासक्ति को त्याग कर संयम में पराक्रम करे। ऐसा मैं कहता हूं।
भाष्यम् २५–मतिमान् जागरणदिशायां पराक्रमेत । मतिमान् पुरुष जागरण की दिशा में पराक्रम करे । इसके लिए एतत्कृते लोकस्य ज्ञानं लोकसंज्ञायाश्च परित्यागः लोक का ज्ञान और लोकसंज्ञा का परित्याग अपेक्षित होता है। जब अपेक्षामर्हति । यावत् कषायलोकस्य तद्विपाकस्य च तक कषायलोक तथा उसके विपाक का सम्यक् अवबोध नहीं होता, सम्यक् परिज्ञानं नहि भवति, तावत् अस्यां दिशायां तब तक इस दिशा में पराक्रम नहीं किया जा सकता। लोकसंज्ञा का पराक्रमोन घटते । लोकसंज्ञा--लोकप्रवाहसम्मता विष- अर्थ है-लोकप्रवाह सम्मत विषयों की ओर दौड़ने की मनोवृत्ति । याभिमुखता यावत् वान्ता न स्यात् तावत् कुतो जब तक वह छोड़ी नहीं जाती तब तक जागरण की दिशा में प्रयत्न जागरणाभिमुखः प्रयत्नो भवेत् ?'
कहां से हो सकता है ?
बीओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक
२६. जातिं च वुट्टि च इहज्ज ! पासे।
सं०-जाति च वृद्धि च इह आर्य ! पश्य । हे आर्य! तू संसार में जन्म और जरा को देख ।
१. तुलना-अंगसुत्ताणि 1, सूयगडो २०११५४ : जे खलु
गारत्या सारंमा सपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंमा सपरिग्गहा दुहमओ पावाइं कुव्वंति, इति संखाए
दोहि वि अंतेहि अविस्समाणो। २. तुलना-आयारो १५९ ।
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