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अ०४. सम्यक्त्व, उ० १. सूत्र २-४
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___ अहिंसाधर्मः आत्मज्ञैः प्रवेदितोऽस्ति, अनेन इति अहिंसा धर्म आत्मज्ञ पुरुषों द्वारा प्रतिपादित है, इससे फलितं भवति-धर्मस्य मूलस्रोतोस्ति आत्मज्ञता, न तु यह फलित होता है-धर्म का मूल स्रोत है—आत्मज्ञता। बुद्धि धर्म बुद्धिः । य आत्मवित् स सर्ववित् । आत्मविदेव दुःखस्य का मूल स्रोत नहीं है। जो आत्मज्ञ होता है वही सर्वज्ञ होता है । मूलकारणं ज्ञातुं शक्नोति।
आत्मज्ञ ही दुःख के मूल कारण को जान सकता है । ३. तं जहा-उट्ठिएसु वा, अणुट्ठिएसु वा। उवट्ठिएसु वा, अणुवट्टिएसु वा। उवरयदंडेसु वा, अणवरयदंडेसु वा। सोवहिएसु वा, अणोवहिएसु वा । संजोगरएसु वा, असंजोगरएसु वा। सं०-तद् यथा -- उत्थितेषु वा अनुत्थितेषु वा । उपस्थितेषु वा, अनुपस्थितेषु वा । उपरतदंडेषु वा, अनुपरतदंडेषु वा । सोपधिकेषु वा, अनुपधिकेषु वा । संयोगरतेषु वा, असंयोगरतेषु वा। अर्हतों ने अहिंसा-धर्म का उन सबके के लिए प्रतिपादन किया है जो उसकी आराधना के लिए उठे हैं या नहीं उठे हैं, जो उपस्थित हैं या अनुपस्थित हैं, जो दण्ड से उपरत हैं या दंड से अनुपरत हैं, जो परिग्रही हैं या परिग्रही नहीं हैं, जो संयोग में रत हैं या संयोग में रत नहीं हैं।
भाष्यम् ३-धर्मप्रवेदनस्य सार्वभौममुद्देश्यमस्ति। धर्म के प्रतिपादन का उद्देश्य सार्वभौम है। उसके लिए दस तदर्थं दश विकल्पाः अत्र प्रतिपादिताः, तद् यथा- विकल्प यहां प्रस्तुत हैं, जैसे(१) उत्थिताः-धर्म प्रति कृताथासाः ।
१. उत्थित-जो धर्म के प्रति प्रयत्नशील हैं। - (२) अनुत्थिताः-तद्विपरीताः ।
२. अनुत्थित-जो धर्म के प्रति उदासीन हैं । (३) उपस्थिता:-धर्म शुश्रूषवो जिघृक्षवो वा। ३. उपस्थित-जो धर्म तत्त्व को सुनने और ग्रहण करने के
इच्छुक हैं। (४) अनुपस्थिता:-तद्विपरीताः ।
४. अनुपस्थित-जो धर्म तत्त्व को सुनने और ग्रहण करने के
इच्छुक नहीं हैं। (५) उपरतदण्डा:-संयमिनः ।
५. उपरतदंड-जो संयमी हैं। (६) अनुपरतदण्डा:-तद्विपरीताः ।
६. अनुपरतदंड-जो संयमी नहीं हैं । (७) सोपधिका:-हिरण्यादिमन्तः ।
७. सोपधिक-जो हिरण्य आदि उपधि से युक्त हैं । (८) अनुपधिकाः-तद्विपरीताः ।
८. अनुपधिक-जो उपधि रहित हैं । (९) संयोगरता:-पुत्रकलत्रादिसंबंधवन्तः ।
९. संयोगरत-जो पुत्र, स्त्री आदि के संबंधों से युक्त हैं। (१०) असंयोगरता:-तद्विपरीता:।
१०. असंयोगरत—जो पुत्र आदि के संबंधों से रहित हैं। एतेषां सर्वेषां कृते क्षेत्र : धर्मः प्रवेदितः ।
इन सब प्रकार के व्यक्तियों के लिए क्षेत्रज्ञ-आत्मज्ञ व्यत्तियों ने धर्म का प्रतिपादन किया है ।
४. तच्च चेयं तहा चेयं, अस्सि चेयं पवच्चइ । सं0-तथ्यं चैतत् तथा चैतत् अस्मिन चैतत् प्रोच्यते । यह अहिंसा-धर्म तथ्य है । यह वैसा ही है । यह इस अहंत-प्रवचन में सम्यग् निरूपित है ।
भाष्यम् ४.--.-एतत् 'सम्वे पाणा ण हंतव्वा' अहिंसा- किसी भी प्राणी का हनन नहीं करना चाहिए'... यह सूत्र तथ्यं अस्ति । एतत् तथा वर्तते यथा निरूपितम्। अहिंसा-सूत्र तथ्य है । यह वैसा ही है, जैसा निरूपित है। प्रस्तुत अस्मिन् सम्यक्त्वाध्ययने एतत् सम्यग्दर्शनं प्रोच्यते । 'सम्यक्त्व अध्ययन' में इसे सम्यग् दर्शन कहा है ।
चूणिकारस्य अभिमते 'सत्वे पाणा ण हव्वा एतत् चूर्णिकार के अभिमत में 'सच्चे पाणा हंतव्वा'- यह श्रद्धानलक्षणं रोचकसम्यग्दर्शनं विद्यते । तस्यानुसारि श्रद्धानलक्षण वाला रोचक सम्यग्दर्शन है। उसके अनुसार आचरण आचरणं कारकसम्यग्दर्शनं विद्यते। अस्मिन् आर्हते करना कारक सम्यग्दर्शन कहलाता है । इस अर्हत् शासन में सम्यग्दर्शन शासने एतत् सम्यग्दर्शनद्वयं प्रोच्यते ।'
के ये दो प्रकार हैं। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ १३४, १३५ ।
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