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आचारांगभाष्यम् आत्मसिद्धान्ते आसीत् अधिकारः इति उपनिषत्साक्षी- आत्म-सिद्धान्त के विषय में अधिकार था, यह बात उपनिषदों की पूर्वकं वक्तुं शक्यम् । तेन एतस्प्रकरणं उपनिषत्प्रभावितं साक्षी से कही जा सकती है। इसलिए आचारांगगत यह प्रकरण इति प्रतिपादनपरैः पण्डितैः पुनरालोचनीयम् । उपनिषदों से प्रभावित है या यह उसका उपजीवी है, ऐसा प्रतिपादन
करने वाले पंडितों को पुनः सोचना होगा। १२३-इदानीं आत्मनः अज्ञेयवादः अनिर्वचनीयस्व- यहां से आत्मा के अज्ञेयवाद अथवा अनिर्वचनीय स्वरूप का रूपं वा निरूप्यते
निरूपण प्रस्तुत किया जा रहा हैआत्मा अमूर्तः सूक्ष्मतमश्च विद्यते, अतः स शब्देन आत्मा अमूर्त और सूक्ष्मतम है, इसलिए वह शब्द के द्वारा नास्ति प्रतिपाद्यः।
प्रतिपाद्य नहीं है। चूर्णी स्वरः प्रवाद इत्युक्तम्-सव्वे पवाया तत्थ चूणि में स्वर शब्द के स्थान पर प्रवाद शब्द है -सभी नियटॅति ।'
प्रवाद आत्मा से लौट आते हैं, उस तक नहीं पहुंच पाते। उपनिषदि ब्रह्मणः आनन्दविज्ञानविषये एतादृशं उपनिषद् में ब्रह्मा के आनन्द-विज्ञान के विषय में ऐसा ही सूक्तमुपलभ्यते
सूक्त प्राप्त होता हैयतो वाचो निवर्तन्ते, अप्राप्य मनसा सह ।
वाणी वहां तक पहुंचे बिना ही मन के साथ लौट आती है । आनन्दः ब्रह्मणो विद्वान्, न विभेति कदाचन ॥
जो ब्रह्म के आनन्द को जानता है, उसको कहीं कभी भय नहीं होता। १२४ –तर्क:-मीमांसा ।' तर्केण परीक्ष्यमाणः तर्क का अर्थ है-मीमांसा। तर्क के द्वारा परीक्षा करने पर आत्मा न साक्षादुपलब्धो भवति । स अमूर्त्तत्वात् सूक्ष्म- आत्मा साक्षात् उपलब्ध नहीं होती । वह अमूर्त और सूक्ष्मतम होने के तमत्वाच्च तर्काग्राह्यः।
कारण तर्क से ग्राह्य नहीं है। १२५ ..स मतिग्राह्योपि नास्ति। अमूर्त तत्त्वं वह बुद्धिग्राह्य भी नहीं है। अमूर्त तत्त्व शब्दों का, तर्कों का शब्दानां ताणां मतीनां च अविषयो भवति । यथोक्तं और बुद्धि का विषय नहीं बनता। जैसे उत्तराध्ययन में कहा हैउत्तराध्ययने---नो इंवियग्गेज्म अमुत्तमावा।
आत्मा अमूर्त है, इसलिए वह इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता। १२६-स आत्मा ओजः-एकः स्वतन्त्रो वा वर्तते। वह आत्मा ओज है-अकेला अथवा स्वतंत्र है। सामयिकी सामयिक्या संज्ञया ओज इत्येकः । स शरीराद् भिन्न एक संज्ञा से ओज का अर्थ है-अकेला। वह शरीर से भिन्न एक ही है, एव वर्तते, नास्ति कश्चिद् द्वितीयः । स अप्रतिष्ठान:- दूसरा कोई नहीं है । वह अप्रतिष्ठान है.-सर्वथा अनालंबन है। वह सर्वथा अनालम्बनः । क्षेत्रज्ञ:'--ज्ञाता।
क्षेत्रज्ञ है-ज्ञाता है। १२७-आत्मा नास्ति दीर्घः-लोकव्यापीति यावत्। आत्मा दीर्घ नहीं है-लोकव्यापी नहीं है। वह ह्रस्व नहीं नास्ति ह्रस्वः-अगुष्ठपरिमाण इति यावत् । है-अंगुष्ठ परिमाण भी नहीं है। उपनिषदों में आत्मा का ह्रस्वत्व उपनिषत्सु आत्मनो ह्रस्वत्वं दीर्घत्वं च समुपलभ्यते।' और दीर्घत्व माना गया है। वह वृत्त आदि संस्थानों से संस्थित नहीं स वृत्तादिसंस्थानः संस्थितो नास्ति।
१. आचारांग चूणि, पृष्ठ १९९ । २. तैतरीय उपनिषद् २।२। ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ १९९ : तक्का जाम मीमांसा
हेऊमग्गो।' ४. उत्तरायणाणि, १४.१९ । ५-६. चूणों वृत्तौ एवमाख्यातमस्ति(क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १९९ : अपइट्ठाणस्स खेयण्णेति
सो य अप्पइट्ठाणो-सिद्धो। आचारांग वृत्ति, पत्र २०९ : न विद्यते प्रतिष्ठान
मौदारिकशरीरावेः कर्मणो वा यत्र सोऽप्रतिष्ठानो--
मोक्षस्तस्य 'खेदज्ञो' निपुणो। ७. (क) छांदोग्य उपनिषद् ३३१४१३ : एष मे आत्माऽन्तहुं दये
अणीयान् व्रीहेर्वा यवाद् वा सर्षपाद् वा श्यामाकाद् वा श्यामाकतण्डुलाद् वा, एष म आत्माऽन्तहृदये ज्यायान् पृथिव्या ज्यायान् अन्तरिक्षाद् ज्यायान्
दिवो ज्यायानेभ्यो लोकेभ्यः । (ख) श्वेताश्वतर उपनिषद् ५।८,९ : अंगुष्ठमात्रो
रवितुल्यरूपः।
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