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अ० ६. घुल, उ० ५. सूत्र १०६-११०
१०८. तम्हा संग ति पास ।
सं० तस्मात् सङ्ग इति पश्यत । इसलिए तुम आसक्ति को देखो।
भाष्यम् १०८ - पेशलधर्मपरिज्ञानात् सम्यग्दर्शनाच्च शांतिर्भवति, तस्मात् शब्दादयः इन्द्रियविषयाः संग इति पश्यत । सङ्गः – आसक्तिः शान्तेविघ्न इति यावत् चूर्णे-संगोति वा वियोति वा वस्वोडिति वा एगड्डा । १०. गंथेहि गढिया णरा, विसण्णा कामविप्पिया ।
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सं० - ग्रन्थः ग्रथिताः नराः विषण्णाः काम 'विप्पिया' । स्वजन आदि में आसक्त और विषयों में निमग्न मनुष्य काम से बाधित होते हैं ।
माध्यम् १०९ - ये नरा ग्रन्थैः – स्वजनादिभिः ग्रथिताः - बद्धाः, विषण्णा : - इन्द्रिय विषयेषु च निमग्नास्ते मदनात्मक कामे: 'विपिया" बाधिताः भवन्ति ।
इच्छाकामः पदार्थजातं निमित्तीकृत्य प्रवर्द्धते । मदनकामस्य उद्दीपने निमित्ततां भजति स्वजनादीनां संसर्ग इन्द्रियविषयाणां अतृप्तिश्च ।
११०. तम्हा लूहाओ णो परिवित्तसेज्जा । सं० तस्वात् क्षात् मो परिविसेत् । इसलिए मुनि संयम से उद्विग्न न हो।
भाष्यम् ११० - - यस्मात् ग्रथिता विषण्णाश्च नराः कामजनितामशान्तिमनुभवन्ति तस्मात् रुक्षात् न परि वित्रसेत् — उद्विजेत । रूक्षम् - संयमः । *
१. 'संग' शब्द के तीन अर्थ किए जा सकते हैं-आसक्ति, शब्द आदि इन्द्रियविषय और विघ्न ।
आसक्ति को छोड़ने का उपाय है आसक्ति को देखना । जो आसक्ति को नहीं देखता, वह उसे छोड़ नहीं पाता । भगवान् महावीर की साधना-पद्धति में जानना और देखना अप्रमाद है, जागरूकता है; इसलिए वह परित्याग का महत्त्वपूर्ण उपाय है। जैसे-जैसे जानना और देखना पुष्ट होता है, वैसे-वैसे कर्म-संस्कार सीज होता है। उसके क्षीण होने पर आसक्ति अपने आप क्षीण हो जाती है।
२. आचारांग चूर्णि, पृष्ठ २४१ । ३. एतद् देशीपदं संभाव्यते ।
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चूण अस्य व्याख्यानं
पेशल धर्म के परिज्ञान से तथा सम्यग्दर्शन से शांति होती है, इसलिए शब्द आदि इन्द्रिय-विषय संग हैं, यह तुम देखो। संग का अर्थ है-आसक्ति, शांति का विघ्न । चूर्णि में संग, विघ्न तथा विक्षेप को एकार्थक माना है ।
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जो मनुष्य ग्रन्थ-स्वजन आदि से बंधे हुए हैं और इन्द्रियविषयों में निमग्न हैं वे मदनकाम से बाधित होते हैं ।
इच्छाका पदार्थ समूह का निमित्त पाकर बढता है । मदनकाम के उद्दीपन में मुख्यतः दो निमित बनते है-स्वजन आदि का संसर्ग और इन्द्रिय-विषयों की अतृप्ति ।
ग्रथित - स्वजन आदि से बद्ध तथा विषण्ण विषयों में निमन्न मनुष्य कामजनित अशांति का अनुभव करते हैं, इसलिए मुनि संयम से उद्विग्न न हो। रूक्ष का अर्थ है-संयम ।
एवमस्ति विधितति विप्पितत्ति वा एण्डर, बच्चे संभादिविष्पिता दुद्धरा भवति भावे दुबिहकाम आसतचित्ता, सयणधणादिणा मुच्छिता वा कामा, जेहिं वा सारीरमाणसेहि वा दुखावी, माणसेहि ह विपिता परलोएवि बहूहि डंडणेहि य जाव पियविप्पओगेहि य विपिज्जिस्संति । (आचारांग चूणि, पृष्ठ २४२) वृत्तौ ' कामक्कता' इति व्याख्यातमस्ति काम:इच्छामदनरूपराक्रान्ताः -- अवष्टब्धाः ।
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( आचारांग वृत्ति पत्र २३३ ) ४. (क) आचारांग भूमि, पृष्ठ २४२ इच्वे जं नेहविरहितं दव्वं तं लूहं भावे रागादिरहितो धम्मो । (ख) आचारांग वृत्ति पत्र २१४ का संयमात्
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