Book Title: Acharangabhasyam
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 447
________________ अ० ८. विमोक्ष, उ० ८. गाथा २१-२३ २२. जावज्जीवं परीसहा, उवसग्गा य संखाय । संबुडे देहभेयाए, इति पण्णेहियासए || सं० यावन्नीवं परीपहाः उपसर्गाः च संख्याय संवृतः देहभेदाव इति प्रातः अधिसत जब तक जीवन है, तब तक ये परीषह और उपसर्ग होते हैं, यह जानकर शरीर को विसर्जित करने वाला और शरीर-भेद के लिए समुद्यत प्राज्ञ भिक्षु उन्हें समभाव से सहन करे । भाष्यम् २२ यावत् प्राणा: तावत् परीषहाः उपसर्गाश्च भवन्ति इति संख्याय ज्ञात्वा प्रज्ञावान् भिक्षुः तान् सोढुं आत्मशक्ति प्रयुञ्जीत जातेषु परीषहेषु उपसर्गेषु च न चलाचलो भवेत्, न च परिकर्म कुर्यात् । भाष्यम् २३ – प्रायोपगमनावस्थायां समाहितचित्तस्य भिक्षोः प्रकृष्टा निर्जरा भवति । तस्यामवस्थायां अन्तविद्यमाना इच्छालोभादयः व्यक्तीभवन्ति, अत एवायमुपदेश: स भिक्षु बहुतरेषु भिदुरेषु कामेषु न रज्येत् । २३. भेउरेसु न रज्जेज्जा, कामेसु बहुतरेसु वि । इच्छा-लोभं ण सेवेज्जा, सुहुमं वण्णं सपेहिया ॥ सं० भिदुरेषु न रज्येत्, कामेषु बहुतरेषु अपि । इच्छालोभं न सेवेत, सूक्ष्मं वर्णं संप्रेक्ष्य । इस जगत् में शब्द आदि प्रचुर काम होते हैं किन्तु वे सब क्षणभंगुर हैं। इसलिए वह उनमें रक्त न हो, इच्छा-लोम का भी सेवन न करे । संयम बहुत सूक्ष्म होता है। उसका दर्शन करने वाला ऐसा न करे । इच्छा - निदानकरणम् । परजन्मनि अमुकोऽहं भूयासं इति रूपं इच्छालोभं न कुर्यात् । वर्ण:- संयमः । स च अत्यन्तं सूक्ष्मो भवति, स्तोकेनापि असत्प्रयत्नेन विराधितो भवति इति संप्रदय आशंसाप्रयोग' वर्जयेत् । १. चूणां वृत्तौ च एतद् अनेकै विकल्पैर्व्याख्यातमस्ति(क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २९५ परीषा दिविन्दादि उवसग्गा व अनुलोमा पहिलोमा प इति संखाय एवं संखावां तेण भवति, यदुक्तं ते न भवंति ततो अहियासते, पुण सुद्धते पड़च्च ण संखाया भवंति, अहवा जावज्जीवं एते परीसहा उवसग्गावि ण मम तरसविसंतीति एवं संखाए अहिए, अहवा परीसहा एव उवसग्गाण देहेमा मा वा इति पणे अहियासए इति एवं प्रज्ञावां उप्पण्णे अहियास सज्जासि परिगिसो वा एवं सो पगो अहियासेति । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २६७-२६८ : 'यावज्जीवं ' यावत्प्राणधारणं तावत्परीषा उपसरिच सोडल्या इत्येतत् 'संख्याय' ज्ञात्वा' तानय्यासयेदिति, पदिवा Jain Education International जब तक प्राण हैं तब तक परीषह और उपसर्ग होते हैं - यह जानकर प्रज्ञावान् भिक्षु उनको सहन करने के लिए अपनी शक्ति का प्रयोग करे यह उत्पन्न परीयों और उपसगों में चमाचल न हो, विचलित न हो और न वह परिकर्म करे । ४०३ प्रायोपगमन की अवस्था में समाहित चित्त वाले भिक्षु के उत्कृष्ट निर्जरा होती है । उस अवस्था में मुनि में विद्यमान आन्तरिक इच्छालोभ आदि अभिव्यक्त होते हैं। इसीलिए यह उपदेश दिया गया है - 'वह भिक्षु राना प्रकार के क्षणभंगुर कामों में अनुरक्त न हो।' होऊं इच्छा का अर्थ है— निदान करना। अगले जन्म में मैं अमुक इस प्रकार इच्छा-लोभ का सेवन न करे । वर्ण का अर्थ है - संयम । वह अत्यन्त सूक्ष्म होता है। वह थोड़े से भी असत् प्रयत्न से विराधित हो जाता है—यहा कर संप्रेक्षा मुनि आशंसा का प्रयोग न करे । For Private & Personal Use Only न मे परोषहोपस इत्येतत्सयाय ज्ञात्वाऽधिसहेत यदिवा यावज्जीवमिति यावदेव जीवितं तावत्परीचोपसर्गजनिता पौडेति तत्पुनः कतिपयनिमेवावस्थायि एतदवस्थस्य ममात्यन्तमल्पमेवेत्यत एतत्सङ ख्याय ज्ञात्वा संवृतो यथानिक्षिप्तत्यत्तगात्र 'देवा' शरीरायानापोत्थित इतिकृत्वा 'प्राज्ञः' उचितविधानवेदी, यद्यत्कायपीडाकार्युपतिष्ठते तत्तत्सम्यगधिसहेत । २. आचारांग चूर्णि, पृष्ठ २९५ : काम इच्छा, पसत्या इच्छा नाणादि, सा तु लोभग्गहणा अपसत्या इच्छा, णिदाणकरणं, जहा बंभदत्तादीहि तं ण सेविज्जा, ण पत्थेज्जा ण अभिलसेज्जा, इहलोगे वा आहारावि, अहवा इहलोगासंसप्पयोगे पर लोगासंसप्पयोगे जीवियासंसप्पओगे कामभोगासंसप्पयोगे । मरणासंसप्पयोगे www.jainelibrary.org

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