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अ० ६. उपधानश्रुत, उ० २. गाथा ५-६
भाग्यम् ७ ----अस्मिन्नुपसर्गाधिकारे मनुष्यतिर्यञ्च्संबंधिनः उपसर्गाः सन्ति निर्दिष्टा देवकृतोपसर्गाणां । नात्र कोप्युल्लेखोऽस्ति ।
संपर्का अह्निकुलादयः पक्षिणः - दंशमशकमक्षिकादयः गृधादयो वा उपचरन्ति वर्तन्ते अथवा समीपं आगत्य मांसादिकमश्नन्ति |
भाष्यम् ८ कुत्सितं चरन्तीति कुचरा:- चौरपारदारिकादय: । उपचरन्ति समीपमागच्छन्ति । कदाचित् । - शक्तिहस्ता ग्रामरक्षकाः चोरग्राहाः चोराशंकया भगवन्तं उपचरन्ति ।
८. अदु कुचरा उवचरंति, गामरक्खा य सत्तिहत्या य । अवु गामिया उवसग्गा, इत्थी एगतिया पुरिसा य ॥ सं० 'अदु' कुचरा: उपचरन्ति, ग्रामरक्षाश्च शक्तिहस्ताश्च । 'अदु' ग्राम्या उपसर्गाः, स्त्रियः एककाः पुरुषाश्च ।
सूने घर में ध्यान करते, तब उन्हें चोर या पारवारिक सतातें, जब वे तिराहे चौराहे पर ध्यान करते, तब हाथ में माले लिए हुए ग्राम रक्षक उन्हें सताते । भगवान् को कभी स्त्रियों और कभी पुरुषों के द्वारा कृत काम सम्बन्धी उपसर्ग सहने होते ।
अथवा ग्राम्या: ग्राम्यधर्म संबंधिनः उपसर्गा: " अभूवन् । कदाचित् स्त्रीभिः कृताः कदाचित् पुरुषः कृताश्च
अस्थानुसारी उपदेश:
'णिविद द अरते पयासु
१. आचारांग वृति पत्र २७९ कुत्सितं चरन्तीति कुचरा:चौरपारदारिकादयस्ते च श्वचिन्धून्यगृहावौ उपचरन्ति' उपसर्गयन्ति ।
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भगवान् महावीर के उपसर्गों के इस प्रकरण में मनुष्य और तिर्यञ्च संबंधी उपसर्ग निर्दिष्ट है। देवकृत उपसर्गों का यहां कोई उल्लेख नहीं है।
२. वही, पत्र २७९ तथा ग्रामरक्षादयश्च त्रिकचत्वरादिव्यवस्थितं शक्तिकुन्तादिहस्ता उपचरन्तीति ।
३. (क) आचारांग चूर्ण, पृ० ३१४ : गामा जाता गामिता । वामो नाम खलजो, मणोवाक्काथिए तिविहेवि उवसग्गे, बतिमगसा अंती तर तं रूवं जहा जातं. पदोसारहगणेण जणी भयं करेति, अयसत्या णं वायाए अक्कोसंति, कारणं तालंति, इच्चे ते उवसग्गे साहितातिया, अहवा तिविहेवि गामिते गामधम्मसमुत्था गामिता, ता तु इत्थि एगतरा पुरिसाय इत्थतं उपसम्पति पुंसगाप, कम्मोदया अभिवंति मणसावि भणवंतो णपति अहवा एस अम्हंतथियाओ इत्थीओ
संसर्पक - सांप, नेवले आदि । पक्षी डांस, मच्छर, मक्खियां आदि अथवा गीध आदि। उपचरति का अर्थ है होना अथवा ये सब तिर्यञ्च पास में आकर मांस आदि खाते हैं ।
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जो बुरे आचरण करते हैं, वे कुचर कहलाते हैं। चोर, पारदारिक आदि कुचर होते हैं। उपचरति का अर्थ है - समीप आना कभी हाथ में भाले लिए हुए ग्रामरक्षक तथा चोरों को पकड़ने वाले चोरग्राह चोर की आशंका से भगवान् के समीप आते थे ।
६. इहलोइयाइं परलोइयाई, भीमाई अणेगरूवाइं । अवि सुब्भि-दुब्भि-गंधाई, सद्दाई अणेगरूवाई ॥ सं० ऐहलौकिकान् पारलौकिकान्, भीमान् अनेकरूपान् । अपि 'सुब्भि-दुब्भि' गंधान्, शब्दाननेकरूपान् ।
भगवान् ने मनुष्य और तिथंच (पशु) सम्बन्धी नाना प्रकार के भयानक कष्ट सहन किए। वे अनेक प्रकार के सुगंध और दुर्गंध तथा प्रिय और अप्रिय शब्दों में संतुलित रहे ।
अथवा कभी स्त्रियों द्वारा कृत और कभी पुरुषों द्वारा कृत ग्राम्यधर्म काम संबंधी उपसर्ग भगवान् को हुए।
इसका संवादी उपदेश है
'तू कामभोगों के आनन्द से उदासीन बन । स्त्रियों में अनुरक्त मत बन ।'
पत्येमागो अहं अम्मासे वा समुवागतोत्ति पुरिसा तं चाहणंति णिच्छुभंति पिट्ठति वा ।
(ख) आचारांग वृत्ति पत्र २७९ 'प्रामिका' ग्रामधर्माश्रिता उपसर्गा एकाकिन : स्युः, तथाहि-- काचित् स्त्री रूपदर्शनाभ्युपपन्ना उपसगंयेत् पुरुषो वेति ।
४. भगवान् के रूप को देखकर स्त्रियां मुग्ध हो जातीं। वे रात्री के समय उनके पास आ उन्हें विचलित करने का प्रयत्न करतीं । भगवान् का ध्यान भंग नहीं होता, तब वे रुष्ट होकर गालियां देतीं। इस बात का उनके पतियों को पता चलता तब वे भगवान् के पास आकर व्यंग की भाषा में बोलते - 'इसी भिक्षु ने हमारी रमणियों को अपने मोह जाल में फंसाया है । हमें इसका प्रतिकार करना चाहिए।' वे भगवान् को गालियां देते और ताड़ना तर्जना भी करते । भगवान् आत्म-ध्यान में लीन रहते। इसलिए वे इन दोनों स्थितियों की ओर ध्यान नहीं देते ।
५. आयारो, ३।४७ ।
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