Book Title: Acharangabhasyam
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 542
________________ परिशिष्ट । आचारांग चूणि में उद्धृत श्लोक चू० पृष्ठ चरणकरणानुयोग के व्याख्या-द्वार १. णिक्खेवेगट्ठ णिरुत्त विही पवत्ती अ केण वा कस्स । तद्दारभेदलक्खणतदरिहपरिसा य सुत्तत्थो । ग्रीष्मकाल की उपयोगी वस्तुएं २. सरसो चंदणपंको अग्धति उल्ला य गंधकासाई । पाडल-सिरीस-मल्लिय-पियंगु काले निदाहमि ।। आचारांग के अध्ययनों के विवरण की प्रतिज्ञा ३. एसो उ बंभचेरे पिंडत्थो वण्णिओ समासेणं । एताहे एक्वेक्कं अज्झयणं वण्णइस्सामि || अर्थ और सूत्र के कर्ता ४. अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणा। सासणस्स हियट्ठाए, ततो सुत्तं पवत्तइ ।। चू० पृष्ठ ज्ञाति-संबंधों की अस्थिरता ९. जह सउणगणा बहवे समागया एगपादवे रत्ति । वसिऊण जंति विविहा दिसा तह सव्वणाइजणो । (१।३६) २५ श्रुत और संवेग का साहचर्य १०. जह-जह सुतमोगाहति अइसयरसपसरसंजुयमपुवं । तह-तह पह्लाइ मुणी नवनवसंवेगसद्धाए । (११३६) जीवों का सदृश संवेदन ११. कट्टेण कंटएण व पाए विद्धस्स वेयणट्टस्स । जा होति अणिव्वाणी णायव्वा सव्वजीवाणं ।। (१११४८) पचासवें वर्ष से इन्द्रिय-परिहानी १२. पंचासगस्स चक्खू, हायती मज्झिम वयं । अभिक्कंतं संपेहाए, ततो से एति मूढतं ॥ (२।५) जुगुप्सनीय है वृद्धावस्था १३. बलिसंततमस्थिशेषितं, शिथिलस्नायुधृतं कडेवरम् । स्वयमेव पुमान् जुगुप्सते, किमु कांता कमनीयविग्रहा ?।। (२७) ५२ वृद्धवस्था में हास्य, भूषा आदि हास्यास्पद १४. ण तु भूषणमस्य युज्यते, न च हास्य कुत एव विभ्रमः । अथ तेषु प्रवर्तते जतो, धुवमायाति परां प्रपञ्चनाम् ।। तीन पुरुषार्थ : योग्य-अयोग्य-वय १५. अत्थो धम्मो कामो तिण्णि य एयाइं तरुणजोग्गाई। गतजुब्वणस्स पुरिसस्स होंति कंतारभूताई। (२।९) धन है प्रियतर १६. प्राणः प्रियतराः पुत्राः, पुत्रः प्रियतरं धनम् । स तस्य हरते प्राणान्, यो यस्स हरते धनम् ।। (२।१७) 'मग' शब्द के छह अर्थ ५. माहात्म्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशस: श्रियः । धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, षण्णां भग इतींगणा ।। आत्मा के आठ प्रकार ६. दविए कसाय जोगे उवजोगे नाण दंसणे चरणे । विरिये आता (य) तथा अदुविहो होइ नायव्वो ॥ (१२) मल्लिकुमारी का छह राजाओं को कथन ७. किंथ तयं पम्हुठं ? जत्थ गयाओ विमाणपवरेसु । बुच्छा समयणिबद्ध देवा ! तं संभरह जाति ।। आज्ञा से अतीन्द्रिय पदार्थों का ग्रहण ८. जिनेन्द्रवचनं सूक्ष्महेतुभिर्यदि गृह्यते । आज्ञया तद्ग्रहीतव्यं, नान्यथावादिनो जिनाः ।। २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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