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सड्डी आणाए मेहावी । ३१८०
श्रद्धावान् आगम के उपदेश के अनुसार मेधावी होता है । अत्थि सत्यं परेण परं, णत्थि असत्यं परेण परं । ३८२ शस्त्र उत्तरोत्तर तीक्ष्ण होता है। अशस्त्र उत्तरोत्तर तीक्ष्ण नहीं होता, वह एकरूप रहता है ।
किमत्थि उवाही पासगस्स ण विज्जई ! णत्थि । ३३८७ इष्टा के कोई (कर्मजन्य) उपाधि नहीं होती।
दिट्ठेहि णिव्वेयं गच्छेज्जा । ४।६ विषयों से विरक्त रहो ।
णो लोगस्सेसणं चरे । ४।७ लोकंषणा में मत फंसो ।
जस्स णत्थि इमा णाई, अण्णा तस्स कओ सिया ?
जिसे अहिंसा धर्म का ज्ञान नहीं है, उसे अन्य तत्त्वों का ज्ञान कहाँ से होगा ?
पत्ते बहिया पास। ४।११
जो प्रमत्त हैं, वे धर्म से बाहर हैं।
जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा । ४।१२ जो आस्रव हैं, वे ही परिस्रव हैं। जो परिस्रव हैं, वे ही आस्रव हैं ।
नाणागमो मच्चमुहस्स अस्थि । ४।१६ मौत किसी भी मार्ग से आ सकती है।
नरा मुयच्चा धम्मविदु त्ति अंजू । ४।२८
शरीर के प्रति अनासक्त मनुष्य ही धर्म को जान पाते हैं। धर्म को जानने वाला ही ऋजु होता है।
आरंभजं दुक्खमिति जच्चा । ४।२९ दु:ख हिंसा से उत्पन्न होता है ।
पुढो फासाइं च फासे । ४।३६
क्रोधी मनुष्य नाना प्रकार के दुःखों और रोगों को भोगता है ।
लोयं च पास विष्कंदमाणं । ४।३७
तू
देख ! यह लोक क्रोध से चारों ओर प्रकंपित हो रहा
है।
पावेहिमेहि, अभिदाना ते विपाहिया ४३८ जो पाप कर्मों को शांत कर देते हैं, वे अनिदान कहलाते हैं।
विगिच मंस-सोणियं । ४।४३
मांस और रक्त का अपचय कर, अधिक उपचय मत कर। जस्स णत्थि पुरा पच्छा, मज्झे तस्स कओ सिया ? ४।४६ जिसका आदि अंत नहीं है, उसका मध्य कहाँ से होगा ?
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गुरु से कामा । ५॥२
मनुष्य की कामनाएं विशाल होती हैं।
णेव से अंतो, णेव से दूरे । ५४
जिसने विषयों को छोड़ दिया वह उनके बीच नहीं है । उसने विषयों की कामनाओं को नहीं छोड़ा, अतः वह उनसे दूर भी नहीं है।
मोहेण गन्धं मरणाति एति । ५७
मोह के कारण बार-बार जन्म-मरण प्राप्त होता है ।
संसयं परिजाणतो संसारे परिण्णाते भवति ।
जो संशय को जानता है, वह संसार को जान लेता है।
आचारांगभाष्यम्
संसयं अपरिजाणतो संसारे अपरिण्णाते भवति । ५९
जो संशय को नहीं जानता, वह संसार को नहीं जान
पाता ।
उट्टिए जो पमायए । ५२३
उत्थित होकर प्रमाद मत करो । जाणित दुक्खं पत्तेयं सायं । ५२४
सुख-दुःख अपना-अपना होता है ।
पुट्टो का विमोल्लए ५।२६
जो कष्ट प्राप्ट प्राप्त हों, उन्हें समभाव से सहन करो। एए संगे अविजाणतो । ५।३३
अज्ञानी के लिए पदार्थ आसक्ति के कारण होते हैं ।
पुरिसा! परमच विपरक्कमा ५।३४
परमचक्षुष्मान् पुरुष परिग्रह-संयम के लिए पराक्रम
!
कर ।
से सुयं च मे अज्झत्थियं च मे, बंध- पमोक्खो तुज्झ अज्झत्येव ।
५।३६
मैंने सुना है, अनुभव किया है-बंध और मोक्ष तुम्हारी आत्मा में ही है ।
समिया धम्मे आरिएहि वेदए। ५४० तीर्थंकरों ने समता में धर्म कहा है ।
जो जिहेज्ज वीरियं । ५।४१
शक्ति का गोपन मत करो ।
इमेष शाह, कि ते शेण वा ? ५४५
इस कर्म शरीर के साथ युद्ध करो, दूसरों के साथ युद्ध करने से क्या लाभ ?
जुद्धारिहं खलु दुल्लहं । ५२४६
युद्ध के लिए योग्य सामग्री ( औदारिक शरीर आदि) निश्चित ही दुर्लभ है।
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