Book Title: Acharangabhasyam
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 572
________________ ५२८ सड्डी आणाए मेहावी । ३१८० श्रद्धावान् आगम के उपदेश के अनुसार मेधावी होता है । अत्थि सत्यं परेण परं, णत्थि असत्यं परेण परं । ३८२ शस्त्र उत्तरोत्तर तीक्ष्ण होता है। अशस्त्र उत्तरोत्तर तीक्ष्ण नहीं होता, वह एकरूप रहता है । किमत्थि उवाही पासगस्स ण विज्जई ! णत्थि । ३३८७ इष्टा के कोई (कर्मजन्य) उपाधि नहीं होती। दिट्ठेहि णिव्वेयं गच्छेज्जा । ४।६ विषयों से विरक्त रहो । णो लोगस्सेसणं चरे । ४।७ लोकंषणा में मत फंसो । जस्स णत्थि इमा णाई, अण्णा तस्स कओ सिया ? जिसे अहिंसा धर्म का ज्ञान नहीं है, उसे अन्य तत्त्वों का ज्ञान कहाँ से होगा ? पत्ते बहिया पास। ४।११ जो प्रमत्त हैं, वे धर्म से बाहर हैं। जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा । ४।१२ जो आस्रव हैं, वे ही परिस्रव हैं। जो परिस्रव हैं, वे ही आस्रव हैं । नाणागमो मच्चमुहस्स अस्थि । ४।१६ मौत किसी भी मार्ग से आ सकती है। नरा मुयच्चा धम्मविदु त्ति अंजू । ४।२८ शरीर के प्रति अनासक्त मनुष्य ही धर्म को जान पाते हैं। धर्म को जानने वाला ही ऋजु होता है। आरंभजं दुक्खमिति जच्चा । ४।२९ दु:ख हिंसा से उत्पन्न होता है । पुढो फासाइं च फासे । ४।३६ क्रोधी मनुष्य नाना प्रकार के दुःखों और रोगों को भोगता है । लोयं च पास विष्कंदमाणं । ४।३७ तू देख ! यह लोक क्रोध से चारों ओर प्रकंपित हो रहा है। पावेहिमेहि, अभिदाना ते विपाहिया ४३८ जो पाप कर्मों को शांत कर देते हैं, वे अनिदान कहलाते हैं। विगिच मंस-सोणियं । ४।४३ मांस और रक्त का अपचय कर, अधिक उपचय मत कर। जस्स णत्थि पुरा पच्छा, मज्झे तस्स कओ सिया ? ४।४६ जिसका आदि अंत नहीं है, उसका मध्य कहाँ से होगा ? Jain Education International गुरु से कामा । ५॥२ मनुष्य की कामनाएं विशाल होती हैं। णेव से अंतो, णेव से दूरे । ५४ जिसने विषयों को छोड़ दिया वह उनके बीच नहीं है । उसने विषयों की कामनाओं को नहीं छोड़ा, अतः वह उनसे दूर भी नहीं है। मोहेण गन्धं मरणाति एति । ५७ मोह के कारण बार-बार जन्म-मरण प्राप्त होता है । संसयं परिजाणतो संसारे परिण्णाते भवति । जो संशय को जानता है, वह संसार को जान लेता है। आचारांगभाष्यम् संसयं अपरिजाणतो संसारे अपरिण्णाते भवति । ५९ जो संशय को नहीं जानता, वह संसार को नहीं जान पाता । उट्टिए जो पमायए । ५२३ उत्थित होकर प्रमाद मत करो । जाणित दुक्खं पत्तेयं सायं । ५२४ सुख-दुःख अपना-अपना होता है । पुट्टो का विमोल्लए ५।२६ जो कष्ट प्राप्ट प्राप्त हों, उन्हें समभाव से सहन करो। एए संगे अविजाणतो । ५।३३ अज्ञानी के लिए पदार्थ आसक्ति के कारण होते हैं । पुरिसा! परमच विपरक्कमा ५।३४ परमचक्षुष्मान् पुरुष परिग्रह-संयम के लिए पराक्रम ! कर । से सुयं च मे अज्झत्थियं च मे, बंध- पमोक्खो तुज्झ अज्झत्येव । ५।३६ मैंने सुना है, अनुभव किया है-बंध और मोक्ष तुम्हारी आत्मा में ही है । समिया धम्मे आरिएहि वेदए। ५४० तीर्थंकरों ने समता में धर्म कहा है । जो जिहेज्ज वीरियं । ५।४१ शक्ति का गोपन मत करो । इमेष शाह, कि ते शेण वा ? ५४५ इस कर्म शरीर के साथ युद्ध करो, दूसरों के साथ युद्ध करने से क्या लाभ ? जुद्धारिहं खलु दुल्लहं । ५२४६ युद्ध के लिए योग्य सामग्री ( औदारिक शरीर आदि) निश्चित ही दुर्लभ है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590