Book Title: Acharangabhasyam
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 586
________________ ५४२ का परित्याग २।१५९, १८४ ३ २५ लोकसंयोग का अतिक्रमण २।१६९ त्याग एवं परिणाम ३७८ लोकसार ५४४ पर विमर्श पृ. २३५ लोकंणा का परिहार ४७ लोभ, देखें कषाय वनस्पतिकायिक जीव वस्त्र और अणगार १।९२ की मनुष्य से तुलना १।११३ वेदना का बोध १।११०-११२ के क्रम का विचार पृ. ५९ शस्त्र १।१०१ वनस्पतिकायिक जीव की हिंसा १।१००, १०१, १०९,११४ अनाज्ञा में १ ९७ और गृहवासी १९३,९८ का विवेक १।१०६, ११५, ११७ के परिणाम १।१०४,१०७ परित्याग के हेतु १९१ हेतु १।१०२, १०८ न करने का संकल्प १९० एक वस्त्र और एक पात्र ८८५ एक शाटक ८।५२ का क्रमिक विसर्जन ७७८-८०; ८६९-७४, ९२-९६ की अपेक्षा मुनियों के प्रकार ८१४३ श्रमिक अल्पता एवं परिणाम ८५४-५६ याचना ८|४४ याचना एवं धारण ८१६३-६८, ८६-९१ के प्रति अनासक्ति ६।३६ तीन वस्त्र और एक पात्र ८४३ दो वस्त्र और एक पात्र ८६२ धारण ८।४५-४९ धारण के तीन प्रयोजन ८५३ विषयक प्राचीन परम्परा ८।५०-५१ - सामाचारी एवं परिणाम ८८१ Jain Education International काधिक जीव अचित्त वायु और अणगार १।१५१ की वेदना का बोध १।१६१-१६३ के शस्त्र १।१५२ वायुकाधिक जीव की हिंसा ११५२,१५२, १५९,१६० वीर वायु विमोक्ष पृ. ३५५ विषय के प्रकार १।१५२ का विवेक ११५७. १६५,१६८ की विरति १।१४९ - १५० विरति का आलम्बन १।१४६-१४८ के निवारण की शक्यता १।१४५ परिणाम १।१५६, १५८ हेतु १।१५४, १६९,१७० से अन्य प्राणियों की मृत्यु १।१६४ और आवर्त १९३ की अभिलाषा महाभयंकर २९८-९९ आकांक्षा से पाप कर्म १ १६ आसक्ति का परिणाम १।१४-१५ ओर उन्मुख ५।१३ के लिए परिताप और परिणाम २।२-३ गुण और मूल स्थान २।१३, १४ में प्रवृत्त पुरुष २।१३, १४ रूप और शब्द १९४ लोभ के हेतु २।१ से प्रेरित मनुष्य की दशा ४ ४९ का कर्त्तव्य ३।५० स्वरूप २।१६० के लक्षण ३८ महापथ के प्रति समर्पित १।३७ बेदवित् और महावीर का दृष्टिकोण पृ. २९० और वेदवान् ३|४ का अर्थ ६।१०१ शास्त्रज्ञ पुरुष ५।७४, ११९, ६ १०१ वैराग्य का आलम्बन एवं फल ३।५८ धारण रूपों के प्रति ३ । ५७; ४।६ व्यक्त मुनि ५६२ For Private & Personal Use Only शक्ति का नानात्व ५।४२ शस्त्र संग शिष्य ५।९३ संग्रह संधि आचारांग माध्यम के गोपन का निषेध ५१४१, ४५ संयम के प्रकार १।१९ ३७२ उत्तरोत्तर तीक्ष्ण ३८२ की उदासीनता का निरसन ५।९५ के प्रकार एवं मनोवृत्ति २०९४ द्वारा परुष आचरण ६।७७-७९ विहगपोत के समान ६।७४ आवर्त और स्रोत ३ ६ ५।११८ का अर्थ १।१७३ ३ ६ ६ १०८ परित्याग ६।३८ तात्पर्य ५।३३ को देखने का निर्देश ५।११८ ६।१०८ अनेक बलों का २४५ और संचय के परिणाम ३।३१ एक मूल मनोवृत्ति २।१०५ बल प्राप्ति के हेतु २।४५ भोजन के लिए २।१८ और अतीन्द्रिय ज्ञान ५।२० चैतन्य केन्द्र या चक्र ५१२०, ४१ सन्निधि-संचय २१०६ सम्यग्दर्शन का संधान १९० के अर्थ २।१२७ को शरीर में देखना ५।३० में महान पराक्रम ५।४१ और असंयम का ज्ञान ३।१७ गौरवत्रयी ६५३ वसुमान ५।५५ शीघ्रघाती रोग ५।२६ की तीन भूमिकाएं ४ ४० साधना ३।४४ पूर्वक कर्म अकर्म १८ से तेजोलेश्या का संवर्धन ३७८ भ्रष्ट होने के कारण ६।९५ विपन्न २।१६६, १६७ www.jainelibrary.org

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