Book Title: Acharangabhasyam
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 570
________________ आचारांगभाष्यम् एस णाए पवुच्चइ । २।१७० नेता वह होता है जो लोक-संयोग का अतिक्रमण करता ५२६ कामकामी खलु अयं पुरिसे । २।१२३ यह पुरुष कामकामी-काम का अभिलाषी है। आयतचक्खू लोगविपस्सी । २।१५ संयतचक्षु पुरुष लोकदर्शी होता है। गढिए अणुपरियट्टमाणे । २।१२६ कामासक्त व्यक्ति भव-भ्रमण कर रहा है। एस बीरे पसंसिए, जे बद्धे पडिमोयए । २।१२८ जो बंधे हुए को मुक्त करता है, वह वीर प्रशंसित होता जहा अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो। २।१२९ यह शरीर जैसा भीतर है, वैसा बाहर है और जैसा बाहर है, वैसा भीतर है। मा यहु लालं पच्चासी । २।१३२ तुम लार को मत चाटो। कामंकमे खलु अयं पुरिसे । २१३४ पुरुष कामंकाम है-काम की अभिलाषा करता है। वेरं वड्ढेति अप्पणो । २।१३५ कामात पुरुष अपने वैर को बढाता है । अमरायइ महासड्ढी । २।१३७ काम और अर्थ में जिसकी महान् श्रद्धा होती है, वह अमर की भांति आचरण करता है। तम्हा पावं कम्मं व कुज्जा न कारवे । २।१४९ __पापकर्म स्वयं न करे और न दूसरों से करवाए। जे ममाइयमति जहाति, से जहाति ममाइयं । २१५६ जो परिग्रह-बुद्धि का त्याग करता है, वह परिग्रह का त्याग कर सकता है। से हु दिट्ठपहे मुणी, जस्स पत्थि ममाइयं । २।१५७ जिसके पास परिग्रह नहीं है, उसी ज्ञानी ने पथ को देखा जे अणण्णदंसी, से अणण्णारामे। जे अणण्णारामे, से अणण्णदंसी । २।१७३ जो चैतन्य को देखता है, वह चैतन्य में रमण करता है। जो चैतन्य में रमण करता है, वह चैतन्य को देखता है । जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थइ । जहा तुच्छस्स कत्थइ, तहा पुण्णस्स कत्थइ ।। २।१७४ धर्मकथी जैसे संपन्न को उपदेश दे, वैसे ही विपन्न को दे और जैसे विपन्न को दे, वैसे ही सम्पन्न को दे। ण लिप्पई छणपएण वीरे । २।१८० __वीर पुरुष हिंसा-कर्म से लिप्त नहीं होता। कुसले पुण णो बद्धे, णो मुक्के । २।१८२ कुशल-जीवनमुक्त व्यक्ति न बद्ध होता है और न मुक्त होता है। सुत्ता अमुणी सया, मुणिणो सया जागरंति । ३।१ अज्ञानी सदा सोते हैं । ज्ञानी सदा जागते हैं । लोयंसि जाण अहियाय दुक्खं । ३२ ..तुम जानो, दुःख-अज्ञान अहित के लिए होता है । समयं लोगस्स जाणित्ता, एत्थ सत्थोवरए । ३।३ सब आत्माएं समान हैं-यह जानकर जीवलोक की हिंसा से उपरत हो जाओ। आवट्टसोए संगमभिजाणति । २६ संग-राग आवर्त है, स्रोत है। जागर-वेरोवरए वीरे । ३८ वीर वह है जो जागृत है, वैर से उपरत है । आरंभजं दुक्खमिणं ति णच्चा। ३.१३ दुःख हिंसा से उत्पन्न होता है। माई पमाई पुणरेइ गन्मं । ३।१४ मायावी और प्रमादी पुरुष बार-बार जन्म लेता है। मारामिसंकी मरणा पमुच्चति । ३३१५ मृत्यु से आशंकित रहने वाला मृत्यु से मुक्त हो जाता है। अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ । ३।१८ कर्ममुक्त आत्मा के लिए कोई व्यवहार-नाम और गोत्र का व्यपदेश नहीं होता। कम्मु णा उवाही जायइ । ३.१९ उपाधि व्यपदेश कर्म से होता है। णारति सहते वीरे, वीरे णो सहते रति । २।१६० साधक संयम में अरति को और असंयम में रति का सहन नहीं करता। णिविद दि इह जीवियस्स । २।१६२ तू आमोद-प्रमोद से अपने आकर्षण को हटा। बुटवसु मुणी अणाणाए। २।१६६ आज्ञा का पालन नहीं करने वाला दरिद्र होता है। तुच्छए गिलाइ वत्तए । २।१६७ साधना-शून्य पुरुष साधना-पथ का निरूपण करने में ग्लानि का अनुभव करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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