Book Title: Acharangabhasyam
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 569
________________ ५२५ परिशिष्ट ११ : सूक्त और सुभाषित अरई आउट्टे से मेहावी । २।२७ मेधावी वह है जो अरति का निवर्तन करता है। खणंसि मुक्के । २।२८ मेधावी क्षणभर में मुक्त हो जाता है। मंदा मोहेण पाउडा । २०३० अज्ञानी मोह से आवृत होते हैं । एत्य मोहे पुणो-पुणो सण्णा । २।३३ मोह से मूढ व्यक्ति विषयों के दलदल में फंस जाते हैं। णो हव्वाए णो पाराए । २।३४ विषयासक्त व्यक्ति न इधर के रहते हैं और न उधर के । विमुक्का हु ते जणा, जे जणा पारगामिणो। २१३५ जो पारगामी (संयमी) होते हैं, वे कामभोगों से विमुक्त होते हैं। लोमं अलोभेण दुगंछमाणो, लद्धे कामे नाभिगाहइ । २०३६ जो अलोभ से लोभ को पराजित कर देता है, वह प्राप्त कामों में नहीं डूबता। सपेहाए भया कज्जति । पावमोक्खोत्ति मण्णमाणे । अदुवा आसंसाए । २०४३-४५ हिंसा में प्रवृत्त होने के चार कारण हैं-(१) अपने चिंतन से, (२) भय से, (३) पाप की मुक्ति के लिए, (४) अप्राप्त को पाने की अभिलाषा से । समिते एयाणपस्सी । २०५३ सम्यग्दर्शी पुरुष कर्म-विपाक को देखता है। ण एत्य तवो वा, वमो वा, णियमो वा दिस्सति । २०५९ परिग्रही पुरुष में न तप होता है, न दम और न नियम । उसमें न स्वादविजय, न इन्द्रियविजय और न प्रत्याख्यान होता है। इणमेव गावकखंति जे जणा धुवचारिणो । २०६१ जो शाश्वत की ओर गतिशील हैं, वे अशाश्वत की आकांक्षा नहीं करते। णत्यि कालस्स णागमो। २०६२ मृत्यु के लिए कोई भी क्षण अनवसर नहीं है। सव्वेसि जीवियं पियं। २०६४ सभी प्राणियों को जीवन प्रिय है। सब्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पियजीविणो जीविउकामा । २०६३ सब प्राणियों को आयुष्य प्रिय है। वे सुख का आस्वाद करना चाहते हैं। उन्हें दुःख प्रतिकूल लगता है । उन्हें वध अप्रिय है। उन्हें जीवन प्रिय है । वे जीवित रहना चाहते हैं । अणोहंतरा एते, नो य ओहं तरित्तए। अतीरंगमा एते, नो य तीरं गमित्तए । अपारंगमा एते, नो य पारं गमित्तए । २०७१ हिंसक मनुष्य दुःख के प्रवाह को तैरने में समर्थ नहीं हैं। वे तीर तक पहुंचने में समर्थ नहीं हैं । वे पार तक पहुंचने में समर्थ नहीं हैं। उद्देसो पासगस्स पत्थि। २०७३ द्रष्टा के लिए कोई व्यपदेश नहीं होता। आसं च छंदं च विगिच धीरे । २०१६ हे धीर पुरुष! तू आशा और इन्द्रिय-पराधीनता को छोड । जेण सिया तेण णो सिया । २८८ जिससे होता है, उससे नहीं भी होता । थीभि लोए पव्वहिए। २।९० पुरुष स्त्रियों के द्वारा वशीकृत है । सततं मूढे धम्म णाभिजाणइ । २१९३ सतत मूढ व्यक्ति धर्म को नहीं जानता। अप्पमादो महामोहे । २।९४ साधक विषय-विकारों में प्रमत्त न हो। अलं कुसलस्स पमाएणं । २।९५ कुशल व्यक्ति प्रमाद न करे । गाइवाएज्ज कंचणं । २।१०० किसी भी जीव का अतिपात न करे । एयं पास मुणी ! महाभयं । २।९९ ज्ञानिन् ! तू देख, विषयाभिलाषा महाभयंकर है। लामोत्ति ण मज्जेज्जा । अलामो त्ति ण सोयए । २।११४,११५ लाभ होने पर मद मत करो। लाभ न होने पर शोक मत करो। बहू पि लधु ण णिहे । २११६ प्रचुर लाभ होने पर भी संग्रह मत करो। परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्केज्जा । २११७ परिग्रह से अपने-आपको दूर रखो। अण्णहा णं पासए परिहरेज्जा । २११८ तत्त्वदर्शी वस्तुओं का परिभोग अन्यथा करो। कामा दुरतिक्कमा । २।१२१ काम दुर्लघ्य हैं। जीवियं दुष्पडिवूहणं । २।१२२ जीवन को बढाया नहीं जा सकता। Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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