Book Title: Acharangabhasyam
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
आचारांगभाष्यम
५. एयाणि तिण्णि पडिसेवे, अट्ठ मासे य जावए भगवं। अपिइत्थ एगया भगवं, अद्धमासं अदुवा मासं पि॥ सं०-एतानि त्रीणि प्रतिसेवते, अष्टो मासान् च यापयते भगवान् । अपीत्वा एकदा भगवान्, अर्द्धमासं अथवा मासमपि । भगवान् ने इन तीनों का सेवन कर आठ महीने तक जीवन-यापन किया। उन्होंने कभी-कभी अर्ध मास या एक मास तक भी पानी नहीं पिया। ६. अवि साहिए दुवे मासे, छप्पि मासे अदुवा अपिवित्ता। रायोवरायं अपडिण्णे, अन्नगिलायमेगया भुजे॥ सं०-अपि साधिको द्वो मासौ, षडपि मासान् अथवाऽपीत्वा । रान्युपरात्रमप्रतिज्ञः, अन्नग्लायं एकदा भुङ्क्ते । उन्होंने कभी-कभी दो मास से अधिक और छह मास तक पानी नहीं पिया। उनके मन में नींद लेने का संकल्प नहीं होता था। वे रात भर जागृत रहते थे। कभी-कभी वे वासी भोजन भी करते थे।
भाष्यम् ४-६--सूर्यातापस्य च सहनम्-अतिक्रान्ते सूर्य का आतप सहने का तात्पर्य है-हेमन्त के बीत जाने पर हेमन्ते भगवान् उत्कुटुकासनिक: वाताभिमुखं' स्थित्वा भगवान् उत्कटुक आसन में वायु के अभिमुख बैठकर सूर्य के आतप का आतपमासेवितवान् ।'
सेवन करते थे। - तृतीयमंगम्-रसपरित्यागः रूक्षभोजनेन यापनं च। मोह-चिकित्सा का तीसरा अंग है-रस परित्याग तथा रूक्षअस्मिन् अष्टमासिके प्रयोगे भगवता ओदनमन्थकूल्मा- भोजन से जीवन-यापन । आठ महीनों के इस प्रयोग में भगवान ने षानां एषां त्रयाणामेव आहारः कृतः ।'
कोदो, सत्तू और उड़द-इन तीनों का ही भोजन किया। भगवान् कदाचिद् अर्धमासं मासं वा पानकं न भगवान् ने कभी पन्द्रह दिन अथवा महीने तक पानी नहीं पीतवान् । सर्वं च तपःकर्म अपानकं भवति भगवतः इति पिया। भगवान् की सारी तपस्या अपानक-पानी रहित होती है, इस परम्परानुसारेण भगवान् साधिकं मासद्वयं षडपि मासान् परम्परा के अनुसार भगवान महावीर ने कभी-कभी दो मास से अधिक यावत पानकं न पीतवान् । रात्रिः-पूर्वरात्रम्-प्रथमो और छह मास पर्यन्त भी पानी नहीं पिया। रात्रि के दो विभाग हैंद्वौ यामी, उपरात्रम्-पश्चिमी द्वौ यामी। भगवान् पूर्वरात्र अर्थात् रात्री के प्रथम दो प्रहर और उपरात्र अर्थात् रात्री के रात्रेर्यामचतुष्टयेऽपि जागति, न निद्रा प्रतिज्ञाता तस्य । अन्तिम दो प्रहर । भगवान् रात के चारों प्रहरों में जागते रहते। उनके आहारपानकयोः प्रयोगानन्तरं जागरणप्रयोगः दर्शितः। नींद लेने का संकल्प ही नहीं होता। आहार-पानक के प्रयोग के पश्चात् इदानों पुनरपि आहारप्रयोगः प्रदर्श्यते। भगवान भगवान् के जागरण का प्रयोग बतलाया गया है। अब पुनः आहार का कदाचित् ग्लानमन्न-पर्यषितं भुक्तवान् ।
प्रयोग बताया जा रहा है। भगवान् ने कभी-कभी वासी भोजन भी
किया। ७. छटठेणं एगया भुंजे, अदुवा अट्टमेण दसमेणं । दुवालसमेण एगया मंजे, पेहमाणे समाहि अपडिण्णे ॥ सं०-षष्ठेनैकदा भुङ्क्ते, अथवाष्टमेन दशमेन । द्वादशमेन एकदा भुङ्क्ते, प्रेक्षमाणः समाधिमप्रतिज्ञः ।। वे कभी दो दिन, कभी तीन दिन, चार दिन या पांच दिन के उपवास के बाद भोजन करते थे। उनकी दृष्टि तपःसमाधि पर टिकी हुई थी और भोजन के प्रति उनके मन में कोई संकल्प नहीं था। १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३२२ : 'उक्कुडपासणेण अभि- ३. वही, पृष्ठ ३२२ : 'अपियत्य एगता भगवं जो पाणगं ण
मुहवाते उन्हे रुक्खे य वायंते, एवं ताव कायकिलेसो।' पियति सो पावेण आहारं आहारेति, एवं च सम्वं च (ख) वृत्तौ 'अभितावं' पाठः व्याख्यातोस्ति –'तिष्ठत्युत्कुट
तवोकम्मं अप्पाणगं ।' कासनोऽभितापं---तापाभिमुख मिति'।
४. भगवती सूत्र वृत्ति (पत्र ७०५) में 'अन्नगिलाय' शब्द की (आचारांग वृत्ति, पत्र २८३) व्याख्या मिलती है । जो अन्न के बिना ग्लान हो जाता हैं, २. आचारांग चूणि, पृष्ठ ३२२ : 'दम्वरुक्खं ओदणं विरहितं, वह अन्नग्लायक कहलाता है । वह भूख से आतुर होने के मंथु इति मंथसत्तुया णग्गोहमंथुमादी वा भुज्जितएहि तएहि, कारण ताजा भोजन बने तब तक प्रतीक्षा नहीं कर सकता, कुम्मासा कुम्मासा एव, सम्वत्थ रुक्खसद्दो अणुयत्तत्ति
इसलिए प्रातःकाल होते ही जो कुछ वासी भोजन मिलता एयाई तिणि पडिसेवे अट्ठ मासे य जावते भगवं एतेहि
है, उसे खा लेता है। ओदणमंथुकुम्मासेहि, अट्ठमासेत्ति उडुबद्धिते अट्ठ मासे ।'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590