________________
४३४
आचारांगभाष्यम् भाष्यम् ४–अल्प:-स्तोकः कश्चिदेको वा ।' आहंसु-- अल्प का अर्थ है-थोड़ा अथवा कोई एक । आहंसु अर्थात् आहुः।
बुलाना। . ५. एलिक्खए जणे मुज्जो, बहवे वज्जभूमि फरसासी । लट्ठि गहाय णालीयं, समणा तत्थ एव विहरिसु ॥ सं०-ईदृक्षे जने भूयो, बहवः वज्रभूमौ परुषाशिनः । यष्टिं गृहीत्वा नालिका, श्रमणाः तत्र एव व्यहार्षुः । भगवान् ने ऐसे जनपद में (बार-बार) विहार किया। वनभूमि के बहुत लोग सक्षमोजी होने के कारण कठोर स्वभाव वाले थे। उस जनपद में कुछ श्रमण लाठी और नालिका पास में रखकर विहार करते थे।
भाष्यम् ५ -- भगवान् ईदक्षे जने भूयः पुनः पुनः भगवान् ने ऐसे जनपद में बार-बार विहरण किया। उस विहृतवान् । तत्र वज्रभूमौ बहवो लोकाः परुषाशिनः- ववभूमि में अधिकतर लोग रूक्षभोजी थे, इसीलिए वे अत्यंत क्रोधी रूक्षभोजिनः आसन् । अत एव ते अत्यन्तं क्रोधना होते थे। वहां श्रमण हाथ में लाठी (शरीर-प्रमाण) या नालिका अभवन् । तत्र श्रमणाः यष्टिं नालिका वा गृहीत्वा (शरीर से चार अंगुल बड़ी) लेकर बिहार करते थे। किन्तु भगवान् व्यहार्षुः । किन्तु भगवान् अयष्टिक: अनालिक: एवा- के पास न लाठी थी और न नालिका। सीत् । ६. एवं पि तत्थ विहरंता, पुट्ठपुव्वा अहेसि सुणएहि । संलुचमाणा सुणएहि, दुच्चरगाणि तत्थ लाहिं ॥ सं०-एवमपि तत्र विहरन्तः, स्पृष्टपूर्वाः अथासन् शुनकैः । संलुच्यमानाः शुनकः, दुश्चरकाणि तत्र लाढेषु । इस प्रकार वहां विहार करने वाले श्रमणों को भी कुत्ते काट खाते और नोंच डालते। लाढ देश के गांवों में विहार करना सचमुच कठिन था।
भाष्यम् ६-दुश्चरकाणि ग्रामादीनि इति 'दुश्चरक' के साथ ग्राम आदि का अध्याहार कर लेना चाहिए । अध्याहार्यम् ।
७. निधाय वंडं पाणेहि, तं कायं वोसज्जमणगारे । अह गामकंटए भगवं, ते अहियासए अभिसमेच्चा। सं०-निधाय दण्डं प्राणेषु, तं कायं व्युत्सृज्यानगारः । अथ ग्रामकण्टकान् भगवान् , तानधिसहते अभिसमेत्य । भगवान् प्राणियों के प्रति होने वाले दण्ड (हिंसा) का परित्याग और अपने शरीर का विसर्जन कर लाढ प्रदेश में विहार कर रहे थे। वहां भगवान् तीखे वचनों को सहन करते थे।
भाष्यम् ७ निधाय -निक्षिप्य। ग्रामकण्टकाः-श्रोत्रा- निधाय का अर्थ है-परिहार करके । प्रामकंटक अर्थात् श्रोत्र दीन्द्रियग्रामकण्टकाः । अभिसमेत्य इति लाढविषयं प्राप्य। आदि इन्द्रियों के लिए कांटे की तरह चुभने वाले विषय । अभिसमेत्य भगवान् तत्र वज्रभूमौ कायव्युत्सर्गप्रयोगमाचीर्णवान् । अर्थात् लाढ देश को प्राप्त कर। भगवान् ने वज्रभूमि में काय-व्युत्सर्ग मानुषान् तैरश्चांश्च उपसर्गान् अधिसोढवान् । दंडप्रयोगं का प्रयोग किया और मनुष्यकृत तथा तिर्यञ्चकृत उपसर्गों को सहा। निक्षिप्तवान्–'शुनो निवारय' इत्यपि नोक्तवान् ।' उन्होंने दंड का प्रयोग भी नहीं किया-'कुत्तों का निवारण करो'
यह भी किसी से नहीं कहा। १. आचारांग वृत्ति, पत्र २८२ : अल्पः स्तोकः स जनो यदि ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१९ : बंडो सरीरप्पमाणा ऊणो
परं सहस्राणामेको यदिवा नास्त्येवासाविति यस्तान् शुनो लट्ठी सरीरप्पमाणा दूरतर एवायरति, नालिया चउरंगुल'लूषकान् दशतो 'निवारयति' निषेधयति ।
अतिरित्ता। २. चूर्णी वृत्तौ च अत्र 'हन्' धातुपदं व्याख्यातमस्ति
४. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१९ : 'णिधायेति णिक्खिप्प, (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१८-३१९ : आहंसुत्ति आह
डंडं ण भणति सुणए वारेहि, उवाएण डवति, मणत्ता केति चोरं चारियंति च मण्णमाणा, केइ
सावि ते णावखंति, सो एवं विहरमाणो अवि पदेसणेण।
गामकंटए भगवं गामकंटगा सोतादिइंदियगाम(ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २८२ : अपि तु दण्डप्रहारा
कंटगा, जं भणितं होति-चउम्विहा उवसग्गा, दिभिर्भगवन्तं हत्वा।
लाढेसु पुण माणुसतिरिच्छिएसु अहिगारो, तेरिच्छगा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org