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आचारांगभाष्यम्
सञ्जातः । तत्र प्रचुरा भवन्ति दंशमशका अपि । तेषां प्रचुर होते थे । उनका कष्ट भी भगवान ने समभाव से सहा । स्पर्शोऽपि समतया सोढवान् ।' २. अह दुच्चर-लाढमचारी, वज्जभूमि च सुब्भ (म्ह ?) भूमि च । पंतं सेज्जं सेविंसु, आसणगाणि चेव पंताई। सं०-अथ दुश्चरलाढमचारीत्, वज्रभूमि शुभ्रभूमि च । प्रान्तां शय्यामसेविष्ट, आसनकानि चैव प्रान्तानि । दुर्गम लाढ देश के बज्रभूमि और सुम्हभूमि नामक प्रदेशों में भगवान् ने बिहार किया। वहां उन्होंने तुच्छ बस्ती और तुच्छ आसनों का सेवन किया।
भाष्यम् २-लाढप्रदेशे उपसर्गबहुलत्वात् चरणं लाढ प्रदेश उपसर्गबहुल था। वहां विचरण करना दुष्कर होता दुष्करमासीत्, तेन स दुश्चरः प्रोक्तः। भगवान् अष्टमं था। इसलिए वह प्रदेश दुश्चर कहलाता था। भगवान् ने आठवां वर्षावासं राजगृहे कृतवान् । ततो विहारं कृत्वा वज्रभूमौ चातुर्मास राजगृह में बिताया । वहां से विहार कर वे वज्रभूमि गए । गतवान् । अनेन ज्ञायते साधनाकालस्य नवमे वर्षे अनार्य- इससे ज्ञात होता है कि साधनाकाल के नौंवे वर्ष में भगवान का देशे भगवतो विहारः जातः'।
विहार अनार्य-देश में हुआ। __तत्र भगवान् षण्मासावधि तस्थिवान् इति चूणि- चूर्णिकार के अनुसार वे वहां छह महीने तक रहे । आवश्यक निर्देशः । आवश्यकचूर्ण्यनुसारेण ज्ञायते भगवान् अनार्य- चूणि के अनुसार यह ज्ञात होता है कि भगवान् ने अनार्य देश से देशात प्रथमशरदि-आश्विनमासे निष्क्रमणं कृतवान् । आश्विन मास में निष्क्रमण किया था।
भगवान् नवमं चतुर्मासं वज्रभूमी कृतवानिति भगवान ने नौवां चातुर्मास बज्रभूमि में किया था, ऐसा प्रतीत प्रतीयते । पर्युषणाकल्पे 'एगं पणियभूमीए' इति निर्देशो होता है। पर्युषणाकल्प में 'एगं पणियभूमीए' ऐसा निर्देश है। दृश्यते ।
'पंत' तुच्छार्थे देशीपदं, प्रान्तं प्रान्त्यं वा । प्रान्ता शय्या- 'पंत' (प्रान्त अथवा प्रान्त्य) देशी शब्द है। इसका अर्थ है ... शुन्यागारादयः, प्रान्तानि आसनानि -पांस्वादिनोपलि- तुच्छ । प्रांत शय्या अर्थात् शून्यगृह आदि। प्रांत आसन अर्थात् वैसे प्तानि ।'
स्थान जो मिट्टी से लिपे-पुते हों। १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१७-३१८ : 'तत्थ पहुंजय
हालदुग में भगवान् को अग्नि का स्पर्श सहना पड़ा। मादी तणा लगंडसीतफासेण ठितं विधति, णिसन्नं वा
___ लाढ प्रदेश में डांस, मच्छर, जलोका आदि जीवकडगकिसासरदब्भादि, सीतं पुण पव्वयाइन्नदेसे
जन्तु भी बहुत थे । भगवान् इन सब स्थितियों को अतीव पडति, तेउत्ति उण्हंति, आतावणभूमी जं व
जानते हुए भी समभाव की कसौटी के लिए वहां हालदामाए अग्गिमेव आसी, उल्लुएण वा कोइ,
गए थे। दंसमसगा य जलोयाओ एवमादि उवसग्गे
२. आवश्यकचूणि पूर्वभाग, पृष्ठ २९६ : ततो विहरंता अहियासए।
रायगिहं गता । तत्थ अट्ठमं वासारत्तं । ......"ताहे लाढा (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २८१ : तृणानां कुशादीनां
वज्जभूमि सुद्धभूमि च वच्चति । स्पर्शास्तृणस्पर्शाः तथा शीतस्पर्शाः तथा तेजःस्पर्शा
३. आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१९ : एवं तत्थ छम्मासे अच्छितो उष्णस्पर्शाश्चातापनाविकाले आसन्, यदिवा गच्छतः
भगवं। किल भगवतस्तेजःकाय एवासीत्, तथा दंश
४. आवश्मक चूणि, पूर्वभाग, पृष्ठ २९७ : ततो निग्गया पढममशकादयश्च ।
सरयदे, सिद्धत्थपुरं गता, सिद्धत्थपुराओ य कुंमागाम (ग) भगवान साधना-काल में लाढ देश (पश्चिम बंगाल
संपत्थिया। के तमलुक, मिदनापुर, हुगली तथा वर्द्धवान जिले ५. पज्जोसवणाकप्पो, सूत्र ८३ । का हिस्सा) में गए थे। उस प्रदेश में घास बहुत ६. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१८ : पंताओ णाम सुन्नाहोती थी। इसलिए बार-बार उसके चुभन के प्रसंग
गारावीओ, सडियपडियभग्गलग्गाओ, आसणाणि आते । वह प्रदेश पर्वतों से आकीर्ण था। इसलिए
पंताणि पंसुकरीससक्करालीगाबिउवचिन्नाणि, वहां सर्दी बहुत पड़ती थी।
कट्ठासणा वा णिच्चलाणि फलहपट्टयादीहि । ग्रीष्म में भगवान सूर्य के आतप को सहन करते थे।
(ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २८१-२८२: तत्र च प्रान्तां
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