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अ० ६. उपधानश्रुत, उ० २. गाथा १४-१६. उ० ३. गाथा १
भाष्यम् १५-तस्मिन् शिशिरर्तुकालेऽपि भगवान् उस शिशिर ऋतु में भी भगवान् अप्रतिज्ञ थे-हवा-रहित अप्रतिज्ञ आसीत्-निवाता वसतिं न संकल्पितवान् वसति का संकल्प नहीं किया। किन्तु वे राग-द्वेष से रहित मध्यस्थ किन्तु स द्रव्यः-रागद्वेषविरहाद् मध्यस्थः सन् अधो- होकर खुले मण्डप में सर्दी को सहन करते थे। सर्दी यदि अत्यधिक हो विवृते मण्डपे शीतमधिसहते । अत्यर्थं शीते सति भगवान् जाती तो भगवान् निम्न निर्दिष्ट विधि से सर्दी को सहन करते थे । निम्ननिर्दिष्टविधिना शीतं सोढवान् । कदाचिद् रात्री कभी रात्री में उस मंडप से निकलकर मुहर्तभर के लिए बाहर खड़े रह तस्मात् मण्डपात् निष्क्रम्य मुहूर्त बहिःस्थितवान् पुनश्च जाते, फिर मंडप में आ जाते। इस प्रकार भगवान् ने सर्दी का कष्ट मण्डपं प्रविष्टवान् । एवं भगवता सम्यक्तया शीतस्पर्शः सम्यक्-रूप से सहन किया । अधिसहितः ।' अस्यानुसारी उपदेश:
इसका संवादी उपदेश है'सीओसिणच्चाई से निग्गंथे. फरुसियं नो वेदेति ।"
'सर्दी और गर्मी को सहन करने वाला निर्ग्रन्थ कष्ट का वेदन
नहीं करता।' १६. एस विही अणुक कंतो, माहणेण मईमया। अपडिण्णण वीरेण, कासवेण महेसिणा।। -त्ति बेमि ।
सं०-एष विधिरनुक्रान्तः, माहने मतिमता। अप्रतिजेन वीरेण, काश्यपेन महर्षिणा। -इति ब्रवीमि । मतिमान् माहन काश्यपगोत्री महर्षि महावीर ने संकल्प-मुक्त होकर पूर्व प्रतिपादित विधि का आचरण किया। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् १६-स्पष्टमेव ।
स्पष्ट है।
तइओ उद्देसो : तीसरा उद्देशक
१. तण फासे सीयफासे य, तेउफासे य दंस-मसगे य । अहियासए सया समिए, फासाइं विरूवरूवाई। सं०-तृणस्पर्शान् शीतस्पर्शान् च, तेजस्स्पर्शान् च दंशमशकान् च । अधिसहते सदा समितः, स्पर्शान् विरूपरूपान् । भगवान् (लाढ देश में) घास की चुभन, सर्दी, भयंकर गर्मी, डांस और मच्छर का काटना-इन नाना प्रकार के कष्टों को सदा सम्यग् भाव से सहन करते थे।
भाष्यम् १-- इदानीं भगवतो निषद्या तत्र जनिताश्च अब भगवान् की निषद्या तथा वहां उत्पन्न उपसर्गों का कथन उपसर्गा निगद्यन्ते । एकदा भगवान् लाढप्रदेशं प्रविष्ट- किया जा रहा है । एक बार भगवान् लाढ प्रदेश में गए। वहां तृणों वान । तत्र तृणानां स्पर्श: अतीव कठोरो विद्यते। का स्पर्श अत्यन्त कठोर था। भगवान् खडे रहते या बैठते तो बहुत भगवान् स्थितो निषण्णो वा तृणैः बहुधा विद्धः । तस्मिन् बार तृण उन्हें बींध डालते । वह प्रदेश पर्वतों से आकीर्ण था। वहां पर्वताकीर्णे प्रदेशे प्रचुरं शीतम् । तस्य स्पर्शोऽपि जातः। सर्दी की प्रचुरता थी। उस सर्दी का कष्ट भी हुआ। वहां सूर्य का तत्र सूर्यातपोऽपि भयंकरो विद्यते । तस्य स्पर्शोऽपि आतप भी भयंकर था। उसका कष्ट भी हुआ। वहां डांस, मच्छर भी १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१७ : अह अच्चत्थं शीतं
णाद् वा द्रवः-संयमः य विद्यते यस्यासौ द्रविकः, स ताहे णिक्खमं एगता राओ बसहीओ रातो-राईए
च तथाऽध्यासयन् यद्यत्यन्तं शीतेन बाध्यते ततस्तस्मात् मुहत्तं अच्छित्ता पुणो पविसति रासमदिळंतणं, पुणो
छन्नान्निष्क्रम्य बहिरेकदा-- रात्री मुहूर्त्तमात्रं य वसतिं च एति, स हि भगवं समियाए सम्ममणगारे,
स्थित्वा पुनः प्रविश्य स भगवान् शमितया सम्यग्वा न भयट्टाए वा सहति ।
समतया वा व्यवस्थितः सन् तं शीतस्पर्श रासभ(ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २८१ : अधो विकटे अधः--
दृष्टान्तेन सोढुं शक्नोति-अधिसहत इति । कुड्यादिरहिते छन्नेऽप्युपरि तदभावेऽपि चेति, पुनरपि २. आयारो, ३७ । विशिनिष्टि-रागद्वेषविरहाद् द्रव्यभूतः कर्मग्रन्यिद्राव
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