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भाष्यम् १० तत्र भगवान् दण्डादिभिः हतपूर्व आसीत् । कुन्ताविफलम् कुन्तादिना फलेन च। लोकाः भगवन्तं दण्डादिभिर्हत्वा हत्वा पक्रन्दुः
परोसहाई लुंचिसु अहवा पंसुणा अवकिरिंसु ।।
११. मंसानि छिन्नपुण्याई, उद्ठमंति एगयाई कार्य सं०-- मांसानि छिन्नपूर्वाणि, अवष्ठीवन्ति एकदा कायम् । परीषहान् अलुञ्चिषु, अथवा पांसुना अवाकारिषुः ।
कुछ लोग मांस काट लेते। कभी-कभी शरीर पर थूक देते, प्रतिकूल परीवह देते और कभी-कभी उन पर धूल डाल देते ।
११ केचिज्जनाः भगवतो मांसमपि छिन्दन्ति, केचित् शरीरे अवष्ठीवन्ति, केचित् परीषहान् - नानावि धानि कष्टानि अलुञ्चिषुः केचिच्च पांसोरवकीर्णमकाः । तथापि भगवान् अविचलः आसीत्, काय व्युत्सर्गप्रयोगः उत्तरोत्तरं विकासमासादयत् ।
भाग्यम् १२ केचिज्जना ध्यानस्थितं भगवन्तं ऊर्ध्वमुत्क्षिप्य भूमी निहतवन्तः । केचित् आसनात् स्खलित । वन्तः । भगवान् व्युत्सृष्टकाय: आत्मानं प्रति प्रणत आसीत्, तेन सर्वान् दुःखकरान् उपसर्गान् अधिसोढवान् ।
१२. उच्चाइय हिणिसु, अदुवा आसणाओ बलहंसु वोसटुकाए पणयासी, दुक्ख सहे भगवं अपडणे || सं० उच्चाल्य व्यवधिः, अथवा आसनादचिस्खलन् । भ्युत्सृष्टकायः प्रणतः आसीत्, दुःखसहः भगवान् अप्रतिशः । कुछ लोग ध्यान में स्थित भगवान् को ऊंचा उठाकर नीचे गिरा देते। कुछ लोग आसन से स्खलित कर देते। किंतु भगवान् शरीर का विसर्जन किए हुए, आत्मा के लिए समर्पित, कष्ट-सहिष्णु और सुख प्राप्ति के संकल्प से मुक्त थे । अतएव उनका समभाव विचलित नहीं होता था ।
१. एतत् समस्तपदं विभाव्यते । आचारांगचूर्णे (पृष्ठ ३२० ) फलपदं चपेटार्थे व्याख्यातमस्ति फलमिति चवेडा ।
आचारांग भाष्यम्
वहां भगवान् ने लाठी आदि के प्रहार सहन किए। कुन्तादिफलम् का अर्थ है-भाला आदि शस्त्र तथा चपेटा। इनके प्रहारों को भी भगवान् ने सहा । बहुत सारे लोग भगवान् पर लाठी आदि का प्रहार कर (खुशी से चिल्लाते
उत्तराध्ययनचूर्ण (पृष्ठ २०७) तु फलं पाणिक प्रहारार्थे विद्यते फलं तु पापातः ।
आचारांगवृत्तौ (पत्र २८३) 'कुन्तादिफलेन' इत्येव लभ्यते ।
१३. सूरो संगामसीसे वा, संवुडे तत्थ से महावोरे । पडिसेवमाणे फरुसाई, अचले भगवं रीइत्था ॥ सं० - शूरः संग्रामशीर्षे वा, संवृतः तत्र स महावीरः । प्रतिसेवमानः परुषान्, अचलः भगवान् अरैषीत् ।
जैसे कवच पहना हुआ योद्धा संग्राम-शीर्ष में विचलित नहीं होता, वैसे ही संवर का कवच पहने हुए भगवान् महावीर कष्टों को
झेलते हुए ध्यान से विचलित नहीं होते थे। वे अविचलित भाव से घूमते रहे ।
२. हन्त । हन्त इत्यपि व्याख्यातुं शक्यते ।
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३. आचारांग वृत्ति, पत्र २८३ : 'चक्रन्दुः — पश्यत यूयं किभूतोऽयमित्येवं कललं चः। चक्रुः ४. अत्र वृत्तिकारेण ( पत्र २८३ ) 'कायमवष्टभ्य' इति व्यापातम् । किन्तु व्याकरणदृष्ट्या एतद् विमर्शमर्हति ।
कुछ लोग भगवान के शरीर से मांस भी काट लेते । कुछ लोग शरीर पर थूक भी देते, कुछ लोग उन्हें नाना प्रकार से कष्ट देते और कुछ लोग भगवान् पर धूल उछालते। फिर भी भगवान् अविल रहते उनका कायार्ग का प्रयोग उत्तरोत्तर विकसित हो रहा
था ।
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कुछ लोग ध्यान में अवस्थित भगवान् को ऊंचा उठाकर नीचे भूमि पर गिरा देते थे। कुछ लोग भगवान् को आसन से स्वलित कर देते भगवान् शरीर का विसर्जन किए हुए थे, वे आत्मा के प्रति समर्पित थे, इसलिए उन्होंने इन अत्यन्त कष्टदायी सभी उपसर्गों को समभाव से सहा ।
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'उ' पर्व ष्ठीवनायें 'औपपातिके' अपि दृश्यते'अहिए (सूत्र ३६) चूर्णावपि अवष्ठीवनायें एव एतद् व्याख्यातमस्ति 'केवि भूमाते उति पुक्करिति य। ( आचारांग चूणि, पृष्ठ ३२० )
५. आचारांग चूणि, पृष्ठ ३२० : पंसुणाइ कयाइ व करेंसु, धूलिए वा छारेण वा भति, तहावि भगवन्तो अपविण णिमल्लति ।
६. वही, पृष्ठ ३२० केइ आसणातो खलति आपावणभूमीतो वा, जत्थ वा अन्नत्थ ठिओ पिसण्णो वा, केति पुण एवं वेवमाणो हणेत्ता आसणातो वा खलिता पच्छा पाएसु पखिमिति ।
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