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अ० ६. उपधानश्रुत, उ० ३. गाथा ११-१४. उ० ४. गाथा १
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भगवान्
भाष्यम् १३ - संवरपरिणामेन संवृतो संदर के परिणामों से संत भगवान् कष्टों को सहते हुए, परुषान् प्रतिसेवमानः ध्यानात् न चलितोऽभूत् स ध्यान से कभी विचलित नहीं हुए। वे अचल ही रहे । अचल एव आसीत् । '
१४. एस विही अणुक्कतो, माहणेण मईमया । अपडिण्णेण वीरेण, कासवेण महेसिणा ॥
सं० एष विधिरनुकान्तः माहनेन मतिमता अप्रतिज्ञेन वीरेण काश्यपेन महर्षिणा ।
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मतिमान् माहन काश्यपगोत्री महर्षि महावीर ने संकल्प-मुक्त होकर पूर्व प्रतिपादित विधि का आचरण किया। ऐसा मैं कहता हूं ।
भाष्यम् १४ स्पष्टम् ।
स्पष्ट है ।
माध्यम् १- भगवान् रोगंरस्पृष्टोऽपि अवमौदयं कृतवान्। बुभुक्षायाः परीषहः सोढुं अतीव दुःशकोऽस्ति तथापि भगवान् अत्यन्तपराक्रमं मुपयुञ्जानः अतिप्रमाणभोजिरवं वजितवान् ।
भगवान् धातुक्षोभजनित रोगे स्पृष्टो न भवति इति पारम्पर्यम् । आगन्तुकैः रोगैः स्पृष्टो भवत्यपि, तेनोक्तं स शेरस्पृष्टः स्पृष्टो वा चैकित्स्यं नाभिलषति न च परं कुर्वाणमनुमोदते ।
चउत्थो उद्देसो चौथा उद्देशक
१. ओमोदरियं चाएति, अपुट्ठे व भगवं रोगेहि [सं०] अवमौदर्य मनोति अस्पृष्टोऽपि भगवान् रोगः भगवान् रोग से अस्पृष्ट होने पर भी अयमौदर्य (अल्पाहार) करते थे। वे रोग से स्पृष्ठ या अस्पृष्ट होने पर चिकित्सा का अनुमोदन नहीं करते थे।
थे ।
१. लाढ देश के निवासियों में कुछ लोग मद्र प्रकृति के कुछ लोग सहसा - सोचे समझे बिना काम करने वाले थे । वे भगवान् को आसन से स्खलित कर देते, किन्तु ऐसा करने पर भगवान् रुष्ट नहीं होते । भगवान् के समभाव को देखकर उनका मानस बदल जाता और वे भगवान् के पास आकर अपने अशिष्ट आचरण के लिए क्षमा-याचना करते जो रचित वाले वे उनका हृदय परिवर्तन नहीं होता था ।
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पुट्ठो
२. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३२१ : वातातिएहि रोगेहि अद्रोवि ओमोदरियं कृतवान् लोगो तुजतो पो रोगेहि भवति ततो पडिक्कारणनिमित्तं ओमं करेति, भगवं पुण अपुट्टो बातावीएहि मोमोदरियं चाति, सुभुजंगं वा जहा आहारेति ।
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त्ति बेमि ।
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पुट्ठे वा से अपुट्ठे वा, जो से सातिज्जति तेहच्छं ।। स्पृष्टो वा सोऽस्पृष्टो वा नो स स्वादयति चैकित्स्यम् ।
इति ब्रवीमि ।
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भगवान् रोगों से अस्पृष्ट होने पर भी अवमोदर्य करते थे । भूख के परीषद्द को सहना अतीव दुष्कर है। फिर भी भगवान् अत्यन्त पराक्रम का उपयोग कर प्रमाणातिरिक्त भोजन का वजन करते थे ।
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भगवान् या तीर्थंकर धातुओं के क्षोभ से उत्पन्न होने वाले रोगों से स्पृष्ट नहीं होते । यह परम्परागत तथ्य है । वे आगंतुक रोगो से स्पृष्ट होते भी है, इसलिए कहा है कि वे रोगों से अस्पृष्ट या स्पृष्ट होने पर चिकित्सा की चाह नहीं करते और करने वाले दूसरे का अनुमोदन भी नहीं करते ।
(ख) अल्पाहार करना सरल कार्य नहीं है । साधारणतया मनुष्य बहुमोजी होते हैं। वे जब रोग से घिर जाते हैं, तब उससे छुटकारा पाने के लिए अल्पाहार करते हैं। भगवान् के शरीर में कोई रोग नहीं था, फिर भी वे साधना की दृष्टि से सर्प की भांति अल्पाहार करते थे ।
३. (क) आचारांग भूमि, पृष्ठ ३२१ मा किमितमेगंतो रोगेहि ण सो सिज्जति ? मन्नति धातुनखोमितेहि ण फुसिज्जति, जइ कोवा कडं सलागं पवेसए तहा, तह (हत) पुण्वो वंडेणं, अतो वुच्चति - पुट्ठे व से अपुट्ठे वा पुट्ठे वा पुट्ठे तेहि आगंतुहि पो सतं स करेति, जोवि अण्णो करेति तंपि ण च करेgत्ति साइज्जइ ।
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