Book Title: Acharangabhasyam
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 473
________________ ४२६ अ०६. उपधानश्रुत, उ० २. गाथा १०-१३ आललंबे। ततो रोषमापन्नस्तैः आक्रुष्टो भगवान् । कहते । ऐसे अवसर पर सामान्य व्यक्ति क्रोधित हो सकता है, किन्तु तस्यामवस्थायां सामान्यजनः क्रुध्येत्, किन्तु भगवान् भगवान् समाधि अथवा आत्मा की प्रेक्षा में लगे रहते थे। इसलिए वे समाधि आत्मानं वा प्रेक्षमाणः आसीत् । अत एव स सदा अप्रतिज्ञ थे अर्थात् उनके मन में प्रतिकार करने का संकल्प कभी सदा अप्रतिज्ञः-प्रतिकारसंकल्परहितः ।' नहीं जागा। 'कसाइत्था'-इदं कषायपदस्य नामधातुरूपम् । ___ 'कसाइत्था'-यह कषायपद का नामधातु का रूप है। १२. अयमंतरंसि को एत्थ, अहमंसि त्ति भिक्खू आहट्ट । अयमुत्तमे से धम्मे, तुसिणीए स कसाइए झाति ॥ सं०-अयमन्तरे कोऽत्र, अहमस्मि इति भिक्षुः आहृत्य । अयमुत्तमस्तस्य धर्मः, तूष्णीकः स कषायिते ध्यायति । भगवान् ने उपवन के अन्तर-आवास में ध्यान किया, तब प्रतिदिन आने वाले व्यक्तियों ने वहां आकर पूछा-'यह भीतर कौन है ?' भगवान् ने कहा-'मैं भिक्षु हूं।' 'हमारी क्रीड़ा-भूमि में क्यों खड़े हो?' अप्रीतिकर भूमि जान भगवान् वहां से चले जाते। यह उनका उत्तम धर्म है। उन व्यक्तियों के उत्तेजित होने पर भी भगवान् मौन और ध्यान में लीन रहते। भाष्यम् १२-अन्तरम्-विवरं, शून्यप्रदेशः, गृहस्य अंतर का अर्थ है-विवर, शून्यप्रदेश अथवा घर का गुप्तगुप्तप्रदेशो वा । अत्र अन्तरे कोऽयं विद्यते ? एवं पृष्टे प्रदेश । भीतर कौन है ? ऐसा पूछने पर भगवान् कहते-मैं भिक्षु हूं। भगवान् 'अहं भिक्षुरस्मि' इति उक्त्वा मौनं भजते । एवं यह कहकर वे मौन हो जाते । यह सुनकर आगन्तुक व्यक्ति शान्त हो श्रुत्वा आगन्तुका: शाम्यन्ति तदा भगवता तत्रैव जाते तो भगवान् वहीं रह जाते । यदि वे रुष्ट होते तो भगवान् उस स्थितम । यदि ते कषायिता अभवन् तदा भगवान् तत् स्थान को छोड़कर अन्यत्र चले जाते । यह उनका उत्तम धर्म था। उन स्थानं परित्यक्तवान् । अयं तस्य उत्तमः धर्मः। स व्यक्तियों के उत्तेजित होने पर भी भगवान् अपने ध्यान को भंग नहीं कषायितेऽपि जने ध्यानं भङ्ग न कृतवान् । स्थानत्यागेऽपि करते । स्थान का त्याग कर देने पर भी ध्यान का त्याग नहीं होता ध्यानत्यागो नाभूत् । था। १३. जंसिप्पेगे पवेयंति, सिसिरे मारुए पवायंते । तंसिप्पेगे अणगारा, हिमवाए णिवायमेसंति ॥ सं०----यस्मिन्नप्येके प्रवेपन्ते, शिशिरे मारुते प्रवाति । तस्मिन्नप्येके अनगाराः, हिमवाते निवातमेषयन्ति । जिस शिशिर ऋतु में ठंडी हवा चलने पर (अल्प वस्त्र वाले लोग) कांप उठते थे, उस ऋतु में हिमपात होने पर कुछ अनगार भी हवा रहित मकान की खोज करते थे। १. (क) चूणौं अस्य त्रयोऽर्था उपलभ्यन्ते-इह परत्थ य पडिपन्ने, तंजहा- णो इहलोगट्ठयाए तवं अणुचिट्ठिस्सामि, विसयसुहेसु य अपडिन्नो, सव्वप्पमादेसु वा । (आचारांग चूणि पृष्ठ ३१६) (ख) वृत्ती अप्रतिज्ञो नास्य वैरनिर्यातनप्रतिज्ञा विद्यत इत्य प्रतिज्ञः । (आचारांग वृत्ति, पत्र २८०) २. चूर्णी वृत्तौ च व्याख्याभेदो दृश्यते(क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१६ : अयं अस्मिन् अंतरे अम्हसंतगे को एत्थ ? एवं वुत्तेहिं अहं भिक्खुत्ति एवं वृत्तेवि रुस्सति, केण तव दिन्नं ? किं वा तुम अम्हं विहारट्टाणे चिट्ठसि ? अक्कोसेहिंति वा कम्मारगस्स वा ठाओ सामिएण दिन्नो होज्जा, पच्छा रन्नो भण्णति-को एस ? सामी द्वितो, तुसिणीओ चिट्ठति, तत्थ गिहत्थे ममत्त, कसाइते संका य, ते सकसाइते णातुं मातिमेव ण भवति, पढमं दाऊणं एत्ताहे रुस्सह, असंकिते चेव उझाति । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २८० : अयमन्तः–मध्ये कोऽत्र व्यवस्थितः ? एवं सङ्कतागता दुश्चारिणः पृच्छन्ति कर्मकरादयो वा, तत्र नित्यवासिनो दुष्प्रणिहितमानसाः पृच्छन्ति, तत्र चवं पृच्छतामेषां भगवांस्तूष्णीभावमेव भजते, क्वचिबहुतरदोषापनयनाय जल्पत्यपि, कथमिति दर्शयति-अहं भिक्षुरस्मीति, एवमुक्ते यदि तेऽवधारयन्ति ततस्तिष्ठत्येव, अयाभिप्रेतार्थव्याघातात् कषायिता मोहान्धाः साम्प्रतेक्षितयैवं ब्रूयुः, यथा तूर्णमस्मात्स्थानान्निर्गच्छ, ततो भगवानचियत्तावग्रह इतिकृत्वा निर्गच्छत्येव, यदिवा न निर्गच्छत्येव भगवान्, किन्तु सोऽयमुत्तमः प्रधानो धर्म आचार इतिकृत्वा स कषायितेऽपि तस्मिन् गृहस्थे तूष्णीभावव्यवस्थितो यद्भविष्यत्तया ध्यायत्येव न ध्यानात्प्रच्यवते ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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