Book Title: Acharangabhasyam
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 470
________________ ४२६ आचारांगभाष्यम् ५. णिई पि णो पगामाए, सेवइ भगवं उदाए । जग्गावती य अप्पाणं, ईसि साई या सी अपडिण्णे ॥ सं०-निद्रामपि नो प्रकाम, सेवते भगवानुत्थाय । जागरयति च आत्मानं, ईषच्छायी चासीद् अप्रतिज्ञः । भगवान् शरीर-सुख के लिए अधिक नींद नहीं लेते थे। निद्रा का अवसर आने पर वे खड़े होकर अपने-आप को जागृत कर लेते थे। वे (चिर जागरण के बाद शरीर-धारण के लिए) कभी-कभी थोड़ी नींद लेते थे। उनके मन में निद्रा-सुख की आकांक्षा नहीं थी। भाष्यम ५-भगवान निद्रां न प्रकामं सेवते । यदा भगवान् अधिक नींद नहीं लेते थे। जब कभी नींद का प्रसंग कदा निद्राप्रसङ्गोऽभूत् तदा अनित्यजागरिकया तत्क्षणं आता तब वे अनित्य-जागरिका से तत्क्षण उठकर अपने-आपको जागृत उत्थाय आत्मानं जागरयति। कदाचिद् ईषत्-- कर लेते थे। कभी पलभर नींद लेते, फिर भी निद्रा-सुख के प्रति निमेषमात्र शेते, तथापि निद्रासुखं प्रति अप्रतिज्ञ आसीत् । अप्रतिज्ञ रहते थे, उसकी आकांक्षा नहीं करते थे। ६. संबुज्झमाणे पुणरवि, आसिसु भगवं उट्ठाए । णिक्खम्म एगया राओ, बहिं चंकमिया मुहत्तागं ।। सं०-संबुध्यमानः पुनरपि, आसिष्ट भगवानुत्थाय । निष्क्रम्यैकदा रात्री बहिश्चंक्रम्य मुहूर्तकम् ।। भगवान् पलभर की नींद के बाद फिर जागृत होकर आन्तरिक जागरूकतापूर्वक ध्यान में बैठ जाते थे। कभी-कभी रात्री में नींद अधिक सताने लगती तब वे उपाश्रय से बाहर निकलकर मुहूर्त्तभर चंक्रमण करते, (फिर अपने स्थान में आकर ध्यान-लीन हो जाते)। भाष्यम् ६-भगवान् निमेषमात्रं निद्राय तत्क्षणं भगवान् पलभर की नींद लेकर भी तत्क्षण पुनः जाग जाते थे । पुनरपि संबुध्यते। कदाचित् निद्रां जेतुं रात्रौ स्थानाद् कभी-कभी निद्रा पर विजय पाने के लिए रात में अपने स्थान से बाहर बहिर्महत्तं चक्रमणं करोति ।' आकर मुहूर्त भर चंक्रमण करते । ७. सयहिं तस्सुवसग्गा, भीमा आसी अणेगरूवा य । संसप्पगाय जे पाणा, अदुवा जे पविखणो उवचरंति ॥ सं०-शयनेषु तस्योपसर्गाः, भीमाः आसन्ननेकरूपाश्च। संसर्पकाः च ये प्राणाः, अथवा ये पक्षिणः उपचरन्ति । भगवान को उन आवास-स्थानों में अनेक प्रकार के भयंकर उपसर्ग झेलने पड़े। (वे ध्यान में रहते, तब) कभी सांप और नेवला काट खाते, कभी कुत्ते काट खाते। कभी चींटियां शरीर को लहूलुहान कर देतीं, कभी डांस, मच्छर और मक्खियां सताती, (फिर भी भगवान् आत्म-ध्यान में लीन रहते)। १. (क) भगवान् ने अपने साढ़े बारह वर्ष के साधना-काल में जग्गवइ भगवां अप्पाणं ज्झाणेण पमादाओ, सरीरकेवल अन्तर्मुहूर्त (४८ मिनिट से कम) नींद ली। संधारणत्थं वा चिरं जग्गित्ता इसि सइयासि इत्तरवह भी एक बार में नहीं, किन्तु अनेक बार में । वे कालं णिमेसउम्मेसमेत्तं लवमित्तं वा ईसं सइतवां लेटते नहीं थे । खड़े-खड़े या बैठे-बैठे पलभर के लिए आसी जहा अट्ठीयग्गामे, निद्दासुहं प्रति अपडिण्णे, झपकी ले लेते और फिर ध्यान में लग जाते। यदुक्तं भवति अणभिलासी, सब्वं किर छउमत्थअस्थिकग्राम में उन्होंने कुछ क्षणों की नींद ली कालं निद्दापमादो अंतोमुहुत्तं आसी, सो एवं थी। उसमें उन्होंने दस स्वप्न देखे थे। भट्टारओ निद्दापमादा अणंतरं संजममाणे पुणरवि भगवान् की साधना के मुख्य तीन अंग हैं -- सयं संमं वा बुज्झमाणो, ण परेहि विबोधिज्जमाणे, १. आहार-संयम, २. इन्द्रिय-संयम, ३. निद्रा-संयम । बुज्झमाणो एव बुट्ठो, ण पडिसेहो, तेण य ज्झायति, वे आन्तरिक अनुभूति की सरसता के द्वारा आहार ण णिद्दापमादं चिरं करेति, सो एवं उमाणेण निदं संयम या रस-संयम करते थे। जिणिज्जमाणो जति कदाइ निदाए अभिभूयति ततो वे आत्म-दर्शन को तन्मयता के द्वारा इन्द्रिय-संयम निक्खम्म एगता रातो बहिं चंकमिया मुहुत्तागं णिच्छितं कम्म णिक्कम्म उवस्सगाओ निक्खंमिओ, करते थे। एगयादि गिम्हे अतिणिद्दा भवति हेमंते वा जिघांसुवे ध्यान के द्वारा निद्रा-संयम करते थे। ग्रीष्म और रादिसु, तवो पुश्वरत्ते अवरत्ते वा पुण्वपडिलेहियहेमन्त में नोंद अधिक सताती थी। उस समय उवासयगतो, तत्थ णिहाविमोयणहेतु मुहत्तागं भगवान् चंक्रमण के द्वारा उस पर विजय पाते थे। चंकमिओ, णि अंतो पविणेत्ता पुणो अंतो पविस्स (ख) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१३ : पायसो छउमस्थकाले पडिमागतो उझाइयवान् । Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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