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आचारांगभाष्यम्
स्त्रधारणस्य विभवन्ति । तिसवाचद् द्वाभ्या, वद्यन्ते।
'अविहिंसामेव पव्वए, अणुधम्मो मुणिणा पवेइओ।"
'अहिंसा में प्रव्रजन कर । महावीर के द्वारा प्रवेदित अहिंसा धर्म
__ अनुधर्म है-पूर्ववर्ती ऋषभ आदि सभी तीर्थंकरों द्वारा प्रवेदित है।' प्रस्तुतागमे वस्त्रविषये तिस्रः परम्परा विद्यन्ते। प्रस्तुत आगम में वस्त्र-विषयक तीन परम्पराएं प्रतिपादित हैं । केचिद् भिक्षवः त्रिभिर्वस्त्रः, केचिद् द्वाभ्यां, केचिच्च कुछ भिक्षु तीन वस्त्र, कुछ दो वस्त्र और कुछ केवल एक ही वस्त्र एकेन पर्यषिता भवन्ति । तिसृष्वपि परम्परासु हेमन्ते रखते थे। तीनों परम्पराओं में हेमन्त ऋतु में वस्त्र धारण करने का वस्त्रधारणस्य विधानं प्रतिपन्ने च ग्रीष्मे एकशाटकस्य विधान था और ग्रीष्म ऋतु में एकशाटक रखने अथवा अचेल रहने अचेलस्य वा विधानमस्ति। अस्मिन् श्लोके एषा का विधान था। प्रस्तुत श्लोक में यह विशेषता प्रतिपादित हैविशिष्टता प्रतिपादिता अस्ति-भगवान् हेमन्तेऽपि भगवान् महावीर हेमन्त ऋतु में भी शीत-निवारण के लिए वस्त्र का शीतनिवारणार्थ वस्त्रप्रयोगं न कृतवान् । संभाव्यते, प्रयोग नहीं करते थे। संभव है, भगवान् पार्श्वनाथ के शासन में ये भगवतः पार्श्वनाथस्य शासने एतास्तिस्रोऽपि परम्पराः तीनों परम्पराएं प्रचलित थीं। उनमें से भगवान् महावीर ने एकशाटक प्रचलिता आसन् । तासु भगवता एकशाटकस्य की परम्परा का अनुपालन किया । पद्धतिराचीर्णा। ३. चत्तारि साहिए मासे, बहवे पाण-जाइया आगम्म । अभिरुज्झ कायं विहरिसु, आरुसियाणं तत्थ हिसिसु ॥ सं०-चतुरः साधिकान् मासान्, बहवः प्राणजातय आगम्य । अभिरुह्य कायं विजह, आरुष्य तत्र अहिंसिषुः । अभिनिष्क्रमण के समय भगवान का शरीर दिव्य गोशीर्षचन्दन और सुगन्धी चूर्ण से सुगन्धित किया गया था। उससे आकर्षित होकर भ्रमर आदि प्राणी आते, भगवान् के शरीर पर बैठकर रसपान का प्रयत्न करते। रस प्राप्त न होने पर वे क्रुद्ध होकर भगवान के शरीर पर डंक लगाते । यह क्रम चार मास से अधिक समय तक चलता रहा।
भाष्यम ३-तीर्थकरस्य देहः अद्भुतगन्धयुक्तो तीर्थकर का शरीर अद्भुत गंधयुक्त होता है। यह जन्मजात भवति । जन्मजातोऽयमतिशयः । भगवतो महावीरस्य अतिशय है। भगवान महावीर के शरीर पर लगी हुई गंधयुक्त द्रव्यों द्रव्यकृतः परिमलोऽपि अतिशायी आसीत् । तेन की सुगन्धि भी विशिष्ट थी। इसलिए सुगंधि के रसिक मधुकर आदि परिमलरसिकाः मधुकरादयः प्राणिनः परागाशंकया प्राणी पराग की आशंका से भगवान् के शरीर के चारों ओर मंडराते भगवतो देहस्य परितः प्रदक्षिणां कुर्वाणा आसन् । रहते थे। अस्यानुसारी उपदेशः
इसका संवादी उपदेश है
१. अंगसुत्ताणि १, सूयगडो १२.१४ ।
आचारांगचूणा (पृष्ठ २९९) तीर्थकराणां गतानुगतं इति व्याख्यातमस्ति-जं पुण तं वत्थं खंधे ठितं धरितं वा तं अणुधम्मियं तस्स अणु पच्छाभावे अन्नेहिवि तित्थगरेहिं तहा धरियं तं अणुधम्मियमेव एतं, जं भणितं-गताणुगतं, अहवा तित्थगराणं अयं अणुकालधम्मो-से बेमि जे य अतीता जे य पडुपण्णा जे य आगमिस्सा अरहंता भगवंतो जे य पव्वइया जे य पव्वयंति जे य पव्वइस्संति सव्वे सोवहिगो धम्मो देसियत्वत्तिक? तित्थच्चयाए एसा अणुधम्मियत्ति एगं देवदूसमादाय पव्वइंसु वा पव्वइंति वा पम्वइस्संति वा, भणियं च
गरीयस्त्वात् सचेलस्स, धर्मस्यान्यः तथागतः ।
शिष्यसंप्रत्ययाच्चैव, वस्त्रं दधे न लज्जया ॥ २. आयारो, ८।४३,६२,८५ । ३. वही, ८.५२,५३,७०,७१,९३ ।
४. भगवान् के शरीर पर अनुवासित सुगन्धी द्रव्यों की गंध बहुत मोहक थी। उसमें आसक्त होकर बहुत सारे तरुण भगवान् के पास आते और सुगंधी द्रव्य की याचना करते। भगवान् मौन थे, इसलिए उन्हें कोई उत्तर नहीं देते। इससे रुष्ट होकर वे भगवान् के प्रति आक्रोश प्रकट करते-- 'क्या देखते हो, देते नहीं ?' भगवान् फिर मौन रहते । वे मौन से खिसिया कर अप्रिय व्यवहार करते ।
भगवान् ध्यान-मुद्रा में खडे रहते । उनके स्वेद और मल से रहित सुन्दर शरीर तथा सुगंधित निःश्वास वाले मुख से स्त्रियां आकृष्ट हो जाती। वे आकर पूछतीआप कहां रहते हैं ? यह सुगन्धित द्रव्य कहां मिलता है ? कौन बनाता है ? भगवान् मौन रहते। इस प्रकार उनका शरीर तथा पूर्वकृत अनुवासन उनके लिए उपसर्ग का हेतु बन रहा था। (आचारांग चूणि, पृष्ठ ३००)
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