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अ० ६. उपधानश्रुत, उ० १. गाथा ११-१३
समूहमध्यस्थितोऽपि एकत्वानुप्रेक्षया भावित एकत्वगत आसीत् । अर्चा - शरीरम् । भगवता कार्यसिद्धिः कृता । प्रायेण काविक्या: प्रवृत्तेः संवरणं कृतम् । तेन स पिहितार्थोऽभवत् ।
अस्यानुसारी उपदेश:
'एगो अहमंसि, न मे अस्थि कोइ, न याहमवि कस्सइ, एवं से एगरगिणमेव अप्पाणं समभिजाणिज्जा ।" 'अइअच्च सव्वतोसंगं, ण महं अस्थित्ति इति एगोहमंसि ।
'अहेगे धम्म मादाय आयाणप्यभि सुपणिहिए चरे ।"
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१२. पुढच आउकार्य, उकार्य च वाउकायं च पणगाई बीय-हरियाई, तसकार्य च सव्वसो णच्वा ।। सं० - पृथ्वीं च अप्कायं, तेजस्कायं च वायुकायं च । पनकानि बीजहरितानि, त्रसकायं च सर्वशः ज्ञात्वा । पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, पनक ( फफूंदी), बीज, हरियाली और त्रसकाय - इन्हें सब प्रकार से जानकर
भाष्यम् १२ – प्रथमाध्ययने षड्जीवनिकायस्य क्रमः प्रस्तुत आगम के पहले अध्ययन में षड्जीवनिकाय का क्रम कुछ किञ्चिद् भिन्नोस्ति । पनकबीजहरितानि - एते सन्ति भिन्न है । पनक, बीज और हरित - ये वनस्पति के भेद हैं । वनस्पतेर्भदाः ।
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रहते हुए भी एकत्व अनुप्रेक्षा से भावित होने के कारण अन्तःकरण में अकेले थे । अर्चा का अर्थ है - शरीर । भगवान् ने कार्यसिद्धि उपलब्ध कर ली थी। उन्होंने कायिक प्रवृत्तियों का प्रायः संवरण किया था, इसलिए वे 'पिहिता' बन गए अर्थात् आत्ममुप्त हो गए।
इसका संवादी उपदेश है-
'मैं अकेला हूं, मेरा कोई नहीं है, मैं भी किसी का नहीं हूं । इस प्रकार वह भिक्षु अपनी आत्मा को एकाकी ही अनुभव करे ।'
१३. एवाई संति पडिले, चित्तमताई से अभिण्णाय परिवज्जियाण विहरिस्था, इति संखाए से महावीरे ॥
सं० एतानि सन्ति प्रतिलिख्य, चित्तवन्ति स अभिज्ञाय । परिवर्ण्य व्यहार्षीत् इति संख्याय स महावीरः ।
इनके अस्तित्व को देखकर, ये 'चेतनावान् हैं' यह निर्णय कर, विवेक कर, भगवान् महावीर इनके आरम्भ का वर्जन करते हुए विहार करते थे ।
एतदनुसारी उपदेश:
'समय लोग जाणता एव सत्योबरए ।"
'भिक्षु सब प्रकार से संग का परित्याग कर यह सोचे- मेरा कोई नहीं है, इसलिए मैं अकेला हूं ।'
'कोई व्यक्ति मुनि-धर्म में दीक्षित हो, वस्त्र - पात्र आदि में अनासक्त होकर विचरण करता है ।'
भाष्यम् १३ – एते षड्जीवनिकायाः सन्ति । अस्ति ये छह जीवनिकाय हैं। इनका अस्तित्व है - यह देखकर, वे एषां अस्तित्वं इति प्रतिलेखनां कृत्वा, ते च चित्तवन्त चेतनावान् हैं - यह जानकर भगवान् महावीर ने उनके वध का परिइति अभिज्ञाय स भगवान् महावीरः तेषां वधं परिवर्जन किया भगवान् महावीर का इस विषयक कहा जाने वाला ज्ञान वजितवान । तस्य भगवतः वक्ष्यमाणं संख्यानं स्पष्टमासीत् ।
स्पष्ट था ।
भगवान् ने उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया । भगवान् ने कहा 'एक बात मेरी भी माननी होगी। मैं भोजन आदि के विषय में स्वतंत्र रहूंगा । उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा। यह बात मान्य हो तभी मैं दो वर्ष तक रह सकता हूं।' नन्दीबर्द्धन आदि ने इसे स्वीकार कर लिया ।
इस अवधि में भगवान् ने सजीव वस्तु का भोजन नहीं किया और सभी पानी नहीं पिया। उन्होंने निर्जीव से हार आदि की शुद्धि की, किन्तु
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इसका संवादी उपदेश है
'सब आत्माएं समान हैं—यह जानकर पुरुष समूचे जीव-लोक की हिंसा से उपरत हो जाए ।'
पूरा स्नान नहीं किया । भगवान् ने उस अवधि में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचयं और अपरिग्रह का जीवन जिया । वे रात्रिभोजन नहीं करते थे । वे परिवार के प्रति भी अनासक्त रहे। यह गृहवास में साधुत्व का प्रयोग था ।
१. आयारो, ८ ९७ ।
२. वही, ६२
३. वही, ६।३५ ।
४. आयारो, ३३, द्रष्टव्यानि च १।१५-१७७ सूत्राणि ।
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