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अ० ६. उपधानश्रुत, उ० १. गाथा ६-१०
७. जे के इमे अगारत्था, मोसीभावं पहाय से झाति । पुट्ठो वि णाभिभासिसु, गच्छति णाइवत्तई अंजू ॥
सं०—ये के इमे अगारस्थाः, मिश्रीभावं प्रहाय स ध्यायति । पृष्टोऽपि नाभ्यभाषिष्ट, गच्छति नातिवर्तते ऋजुः । गृहस्यों से संकुल स्थान प्राप्त होने पर भी भगवान् अपने मन को किसी में न लगाते हुए ध्यान करते थे। ये पूछने पर भी नहीं बोलते। उन्हें कोई बाध्य करता तो वे वहां से मौनपूर्वक दूसरे स्थान में चले जाते । वे ध्यान का अतिक्रमण नहीं करते और प्रत्येक स्थिति में मध्यस्थ रहते ।"
८. जो सुगरमेतमेसि णामिमासे अभिवायमाणे । हयपुग्यो तत्थ दंडेहि लूसियपुध्वो अप्यपुण्णेहिं ॥
सं० - नो सुकरमेतदेकेषां नाभिभाषते अभिवादयतः । हतपूर्वः तत्र दण्डे, लूषितपूर्वः अल्पपुण्यैः ।
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भगवान् अभिवादन करने वालों को आशीर्वाद नहीं देते थे। डंडे से पीटने और अंग-भंग करने वाले अभागे लोगों को वे शाप नहीं देते थे । साधना की यह भूमिका हर किसी साधक के लिए सुलभ नहीं है ।
भाष्यम् ७,८ स्पष्टम् ।
स्पष्ट है ।
६. फरसाई दुतितिखाई, अतिअच्च गुणी परक्कममाणे आधाय जट्ट गोसाई, डाई मुट्टाई ।। सं० परुषाणि दुस्तितिक्षाणि अतिगत्य मुनिः पराक्रममाणः । आख्यात नाट्यगीतानि दण्डयुद्धानि मुष्टियुद्धानि ।
भगवान् दुःसह रूखे वचनों पर ध्यान ही नहीं देते थे। उनका पराक्रम आत्मा में ही लगा रहता था। भगवान् आख्यायिका, नाट्य, गीत, दण्डयुद्ध और मुष्टियुद्ध –इन कौतुकपूर्ण प्रवृत्तियों में रस नहीं लेते थे ।
भाष्यम् ९ - अस्यानुसारी उपदेश:'णिविद दि इह जीवियस्स । २
'अवि से हासमासज्ज, हंता गंदीति मन्नति । "
'णिविद मंदि अरते पयासु ।"
'हा परिन आलीणगुत्तो परिवाए।
१. भगवान् ध्यान के लिए एकान्त स्थान का चुनाव करते थे । यदि एकांत स्थान प्राप्त नहीं होता, तो मन को एकान्त बना लेते थे - बाह्य स्थितियों से हटाकर अन्तरात्मा में लीन कर लेते थे । क्षेत्र से एकान्त होना और एकांत क्षेत्र की सुविधा न हो तो मन को एकांत कर लेनादोनों ध्यान के लिए उपयोगी हैं।
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इसका संवादी उपदेश है
'पुरुष ! तू जीवन में होने वाले प्रमोद से अपना आकर्षण
हटा ले ।'
'आसक्त मनुष्य हास्य-विनोद में जीवों का वध कर हर्षित
होता है।'
'तू कामभोग के आनन्द से उदासीन बन । स्त्रियों में अनुरक्त मत बन ।'
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१०. गढिए मिहो कहासु, समयंमि णायसुए बिसोगे अवक्खू एताई सो उरालाई गण्ड णायपुले असरणाए । सं० ग्रथितान् मिथःकथासु, समये ज्ञातसुतः विशोक अद्राक्षीत् । एतानि स उदाराणि, गच्छति ज्ञातपुत्रः अस्मरणाय । कामकथा और सांकेतिक बातों में आसक्त व्यक्तियों को भगवान् हर्ष और शोक से अतीत होकर मध्यस्थ भाव से देखते थे । भगवान् इन दुःसह अनुकूल और प्रतिकूल उपसगों में स्मृति भी नहीं लगाते, इसलिए उनका पार पा जाते ।
'हास्य आदि सब प्रमादों को त्याग कर, इन्द्रिय - विजय और मन-वचन काया का संवरण कर परिव्रजन कर ।'
२. आयारो, २।१६२ ।
३. वही, ३।३२ ।
४. वही, ३।४७ । ५. वही, ३६१ ।
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