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उप
प्रस्तुताध्ययनस्य नामास्ति 'उपधानश्रुतम्' धानम् - तपः । भगवता साधनाकाले यथा तप आचीर्णं तथाऽस्मिनस्ति सन्दर्शितम् सूक्ष्मेक्षिकवा इति प्रज्ञायते - भगवता यद् यदाचीणं तस्यैव प्रस्तुतागमे प्रतिपादनं कृतं तदेव वा निर्दिष्टम् । उदाहरणरूपेण कानिचित् सूत्राणि निदश्यन्ते --
आचीर्णम्
१. अइवातियं अणाउट्टे सयमण्णेसि अकरणाए । (९।१।१७ ) २. राई वि पि जयमाणे अयमते (९४२१४)
२. ओमोदरियं चाति अट्ठे व भगवं रोगेहि (९०४०१ )
४. पुट्ठे वा से अपुट्ठे वा णो से सातिज्जति तेइच्छं ।
"
(१९२४२१)
५. अविभाति से महावीरे, आसणत्ये अकुक्कुए शाणं । उड्डम तिरियं च पेहमाणे समाहिमपडिष्णे (९४४४१४)
प्रतिपादितम्
१. तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं एतेहि काएहि दंड समारंभेज्जा, वह एतेहि काहि दंड समारंभावेज्जा । (5195)
२. अहो य राओ य जयमाणे - अध्यमत्ते सया परक्कमेज्जासि ।
(४०११)
(२।११३)
३. लद्धे आहारे अणगारे मायं जाणेज्जा । ४. अलं तवेहिं ।
(६।२१)
जाणइ,
(२।१२५ )
५. आयतचक्खू लोग-विपस्सी लोगस्स अहो भागं उड़ढं भागं जाण, तिरियं भागं जाणइ ।
प्रस्तुताध्ययनस्य चत्वारः उद्देशका वर्तते । तेषामर्थाधिकार इत्यमस्ति' -
आमुखम्
१. चर्या ।
२. शय्या ।
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प्रस्तुत अध्ययन का नाम है— उपधानश्रुत उपधान का अर्थ है-तप । भगवान् ने साधनाकाल में तप का जैसा आचरण किया जैसा इस अध्ययन में बताया गया है। सूक्ष्मदृष्टि से देखने पर यह ज्ञात होता है कि भगवान् ने जो-जो आचरण किया उसका ही प्रस्तुत आगम में प्रतिपादन किया है अथवा उसी का निर्देश किया है । उदाहरण के रूप में कुछेक सूत्रों का निर्देश किया जा रहा है। आचीर्ण
१. भगवान् स्वयं प्राणवध नहीं करते थे और दूसरों से नहीं करवाते थे ।
२. भगवान् रात और दिन मन, वाणी तथा शरीर को स्थिर और एकाग्र कर अप्रमत्त रहते थे ।
३. भगवान् रोग से अस्पृष्ट होने पर भी अवमौदर्य करते थे ।
४. वे रोग से स्पृष्ट या अस्पृष्ट होने पर चिकित्सा का अनुमोदन नहीं करते थे ।
५. भगवान् ऊकडू आदि आसनों में स्थित और स्थिर होकर ध्यान करते थे । वे ऊंचे, नीचे और तिरछे लोक में होने वाले पदार्थों को ध्येय बनाते थे। उनकी दृष्टि आत्मसमाधि पर टिकी हुई थी। वे संकल्प से मुक्त थे ।
प्रतिपादित
१. मेधावी उस कर्म-समारंभ का विवेक कर इन सूक्ष्म जीवकायों के प्रति स्वयं दंड का प्रयोग न करे तथा दूसरों से न करवाए ।
२. दिन-रात यत्न करने वाला साधक सदा पराक्रम करे ।
'अप्रमत्त होकर
१. चर्या ।
२. शय्या ।
१. आचारांग निर्युक्ति, गाथा २७९ : चरिया सिज्जा य परीसहा य आयंकिया चिच्छिा य ।
तवचरणेऽहिगारो
उसे
नायब्वो ॥
३. आहार प्राप्त होने पर मुनि मात्रा को जाने । ४. इन चिकित्सा - विधियों का तू परित्याग कर ।
५. संयतचक्षु पुरुष लोकदर्शी होता है । वह लोक के अधोभाग को जानता है, ऊर्ध्वभाग को जानता है और तिरछे भाग को जानता है ।
इस अध्ययन के चार उद्देशक हैं उनका अर्थाधिकार इस प्रकार
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