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आचारांगभाष्यम १०६. एवं से उदिए ठियप्पा, अणिहे अचले चले, अबहिलेस्से परिवए ।
सं.... एवं स उत्थित: स्थितात्मा अनिहतः अचलः चलः अबहिर्लेश्यः परिव्रजेत् । इस प्रकार उस्थित, स्थितात्मा, राग-द्वेष से अपराजित, परोषह से अप्रकम्पित, कर्म-समूह को प्रकम्पित करने वाला और अभ्यवसाय को संयम में लीन रखने वाला मुनि अप्रतिबद्ध होकर परिव्रजन करे।
भाष्यम् १०६-एवं स धर्मकथामर्मज्ञो मुनिः कथं इस प्रकार धर्मकथा-मर्मज्ञ वह मुनि कैसे परिव्रजन करे, इसका परिव्रजेत् इति दर्शयति सूत्रकारः। स उत्थित:- निर्देश कर रहे हैं सूत्रकार। वह मुनि उत्थित-संयम के प्रति सतत संयम प्रति सततं जागरूकः, स्थितात्मा' स्वरूपानु- जागरूक, स्थितात्मा-अपने स्वरूप का अनुसंधान करने में संलग्न सन्धाने क्षायोपशमिके भावे वा यस्य आत्मा स्थितो अथवा क्षायोपशमिक भाव में आत्मस्थिति बनाए रखनेवाला, राग-द्वेष भवति सः, अनिहतः-रागद्वेषाभ्यामपराजितः', से अपराजित, परीषहों और उपसर्गों से अप्रकम्प, बद्धकर्मों की उदीअचल:-परीषहोपसर्गरप्रकम्पकः, चल:---बद्धकर्मणां रणा करने में तत्पर तथा संयम में अथवा आत्मा में सदा रमण करने उदीरणाकारी', अबहिर्लेश्यः-संयमे आत्मनि वा वाला होता है। ऐसा मुनि समता से परिव्रजन करता है । रममाण:५एतादृशो मुनिः समतया परिव्रजनं करोति । १०७. संखाय पेसलं धम्म, दिद्विमं परिणिव्वुडे ।
सं०-संख्याय पेशलं धर्म दृष्टिमान् परिनिर्वृतः । दृष्टिमान् मुनि उत्तम धर्म को जान कर परिनिवृत-शांतचित्त हो जाता है।
भाष्यम् १०७ -दृष्टिमान् मुनिः परिनिर्वृतः शान्त- दृष्टिमान् मुनि परिनिर्वृत-शांतचित्त होता है। शांति का चित्तः भवति । शान्तेः साधनमस्ति धर्मः, अत एव साधन है धर्म । इसीलिए कहा है-वह मुनि पेशल धर्म को जान कर उक्तम् -स पेशलं धर्म संख्याय परिनिर्वाणमाप्नोति। परिनिर्वाण (शांति) को प्राप्त हो जाता है । यहां शांति की प्राप्ति के अत्र शान्तिप्राप्तेः साधनद्वयं प्रतिपादितम् – सम्यग्दर्शनं, दो साधन प्रतिपादित हैं-सम्यग्दर्शन तथा पेशल-कषायों का उपपेशलस्य-कषायोपशामकस्य धर्मस्य परिज्ञानं च । शमन करने वाले धर्म का परिज्ञान।
शमन
१. आचारांग चूणि, पृष्ठ २४० : नाणादिपंथपट्टितो जस्स
अप्पा स भवति उट्ठिते उद्वितप्पा । २. (क) द्रष्टव्यम् -आयारो, ४।३२ सूत्रम् । (ख) आचारांग चूणि, पृष्ठ २४० : अणि हेति ण णिहेति
तवोविरियं ण णिहंति । ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २४० : नाणादिपंथए ठितो
मेरुव वादेण ण कंपिज्जति परीसहोवसग्गेहिं अतो अचले । ४. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २४१ : चलति चालयति वा
चलो, जीवायो व अट्ठविहं कम्मसंघातं चालेतीति
चलो, चालितेत्ति वा उदीरितेत्ति वा एगट्ठा। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २३३ : तथा चलः अनियत
विहारित्वात् । ५. आचारांग चूणि, २४१ : दव्वलेसा सिलेसादि, भावे परिणामो, संजमनिग्गतभावो बहिलेस्सो भवति, अबहिलेस्सो ण बहिलेसो, अहवा अप्पसत्थाओ लेस्साओ संजमस्स
बाहिं वहंतीतिकाउं सो बहिलिस्सो भवति, नो बहिलेस्सो अबहिलिस्सो अणुलोमेहि पडिलोमेहि उवसग्गेहि उप्पण्णेहि अबहिलिस्सो अणाइलभावो अणिग्गयभावो सचित्तो अबहिलिस्सोत्ति एगट्ठा। ६. वही, पृष्ठ २४१ : जेवि ते गामाणुगामं दूइज्जतेणं
आयरिया अणारिया वा धम्म गाहिता तेहिं वंदिज्जमाणो पूइज्जमाणो य आढायमानो अणाढाइज्जमाणो वा तत्थ अबहिलिस्से चेव परिवतिज्ज, समता वते परिश्वते, यदुक्तं भवति-ण कत्थति पडिबज्झमाणो। ७. वही, पृष्ठ २४१: दवणिवुडो अग्गी सीतीभूतो, रागाउवसमाओ य णिन्वुडगा य भवंति, भावे अकसाओ सीतीभूतो परिणिन्वुडो य, तंणिग्गओ, परमो वा तणुयकसाओ वा असंजमविवज्जयओ वा णिवृत्तो, परिणिग्वायमाणे वा परिणिवत्तेति वुच्चति। ८. वही, पृष्ठ २४१ : पीति उप्पाएतीति पेसलो।
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