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आचारांगभाष्यम् जिस भिक्षु का यह प्रकल्प (सामाचारी या मर्यादा) होता है-'मैं ग्लान हूं और मेरे सार्मिक साधु अग्लान हैं, उन्होंने मेरी सेवा करने के लिए मुझे कहा है, मैंने अपनी सेवा के लिए उनसे अनुरोध नहीं किया है। निर्जरा के उद्देश्य से उन सार्मिकों के द्वारा की जाने वाली सेवा का मैं अनुमोदन करूंगा।'
अथवा 'सार्मिक भिक्षु ग्लान हैं, मैं अग्लान हूं। उन्होंने अपनी सेवा करने के लिए मुझे अनुरोध नहीं किया है, मैंने उनकी सेवा करने के लिए उनसे अनुरोध किया है। निर्जरा के उद्देश्य से उन सामिकों की सेवा करूंगा-पारस्परिक उपकार की दृष्टि से।'
भाष्यम् ७६-यस्येति परिहारविशुद्धिकस्य यथा- जिसका अर्थात् परिहारविशुद्धिचरित्र वाले मुनि अथवा लन्दिकस्य वा भिक्षोः अयं प्रकल्पो भवति । प्रकल्पः -- यथालंदक मुनि का यह प्रकल्प होता है। प्रकल्प का अर्थ है- मर्यादा । मर्यादा । कप्पो पकप्पो सामायारी मज्जाता इति चूणिः ।' चूर्णिकार ने कल्प, प्रकल्प, सामाचारी, मर्यादा- इन्हें एकार्थक माना आभिकांक्ष्य उद्दिश्य निर्जरामिति अध्याहार्यम् । है। अभिकांक्ष्य का अर्थ है -निर्जरा के उद्देश्य से। सार्मिक का अर्थ सार्धामकः सदृशकल्पिकैः । अत्र प्राचीनपरम्परा--- है- समान सामाचारी वाला मुनि । इस प्रसंग में प्राचीन परम्परा यह ___ तस्स पुण अणुपरिहारितो करेति, कप्पट्टितो वा, जइ तेवि है-परिहारविशुद्धि मुनि यदि ग्लान हो जाता है तो उसकी सेवा गिलाणाओ सेसगा करेंति, एवं अहालंदिताणवि, अभिकंख अनुपारिहारिक (परिहारविशुद्धि वाला दूसरा मुनि) करता है, अथवा साहमियवेयावडियं सो निज्जराकखितेहिं सरिकप्पएहि, ण पुण कोई कल्पस्थित-जिनकल्पी मुनि करता है। यदि वे भी ग्लान हो थेरकप्पिएहि गिहत्थेहि वा कीरमाणं सातिज्जिस्सामि ।" जाएं तब शेष मुनि सेवा करते हैं । यही विधि यथालंदक मुनि के लिए
है। निर्जरा के उद्देश्य से सार्मिकों द्वारा की जाने वाली सेवा को वह स्वीकार करता है, किन्तु स्थविरकल्पी तथा गृहस्थों के द्वारा की जाने वाली सेवा का वह अनुमोदन नहीं करता।
७७. आहट पइण्णं आणखेस्सामि, आहडं च सातिज्जिस्सामि, आहटु पइण्णं आणक्खेस्सामि, आहडं च णो
सातिज्जिस्सामि, आहट पइण्णं णो आणक्खेस्सामि, आहडं च सातिज्जिस्सामि, आहट पइण्णं णो आणक्खेस्सामि, आहडं च णो सातिज्जिस्सामि। सं०-आवृत्य प्रतिज्ञां आनेष्यामि, आहृतं च स्वादयिष्यामि, आहुत्य प्रतिज्ञां आनेष्यामि, आहृतं च नो स्वादयिष्यामि, आहृत्य प्रतिज्ञा नो आनेष्यामि, आहृतं च स्वादयिष्यामि, आहृत्य प्रतिज्ञां नो आनेष्यामि, आहृतं च नो स्वादयिष्यामि । भिक्ष यह प्रतिज्ञा ग्रहण करता है, मैं सार्मिक भिक्षुओं के लिए आहार आदि लाऊंगा और उनके द्वारा लाया हुआ स्वीकार भी करूंगा।
___ अथवा मैं उनके लिए आहार आदि लाऊंगा, किन्तु उनके द्वारा लाया हुआ स्वीकार नहीं करूंगा।
___ अथवा मैं उनके लिए आहार आदि नहीं लाऊंगा, किन्तु उनके द्वारा लाया हुआ स्वीकार करूंगा।
अथवा मैं न उनके लिए आहार आदि लाऊंगा और न उनके द्वारा लाया हुआ स्वीकार करूंगा। (भिक्ष ग्लान होने पर भी इस प्रकल्प और प्रतिज्ञा का पालन करे। जंघाबल क्षीण होने पर भक्त-प्रत्याख्यान अनशन द्वारा समाधिमरण करे)।
भाष्यम् ७७ - आहट्ट आहृत्य आरुह्य वा प्रतिज्ञाम । १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २७७ । २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २७८ ।
चूणौ स्थविरकल्पः क्रियमाणस्य वैयावृत्त्यस्य निषेधः । वृत्तौ तस्य विधिदृश्यते, किंतु परिहारविशुद्धिकाना स्थविरकल्पिका न सन्ति सदृशकल्पिका इति अस्ति वृत्तेः मतं चिन्त्यम्, यथा च वृत्तिः–'तत्र परिहारविशुद्धिकस्यानु
आहट्ट का अर्थ है --प्रतिज्ञा को ग्रहण कर अथवा प्रतिज्ञा पर पारिहारिकः करोति कल्पस्थितो वा परो, यदि पुनस्तेऽपि ग्लानास्ततोऽन्ये न कुर्वन्ति, एवं यथालन्दिकस्यापीति, केवलं तस्य स्थविरा अपि कुर्वन्तीति दर्शयति-निर्जरां 'अभिकांक्ष्य' उद्दिश्य सामिकः सदृशकल्पिकरेककल्पस्थरपरसाधुभिर्वा क्रियमाणं वयावृत्त्यमहं 'स्वादयिष्यामि' अभिकांक्षयिष्यामि । (आचारांग वृत्ति, पत्र २५५)
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