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अ०८. विमोक्ष, उ०७. सूत्र ११६-१२५
३६३ ___ भाष्यम् १२०-णिपरम्परायां एतत् प्रकरणं चूर्णी की परम्परा में यह प्रकरण प्रतिमा-प्रतिपन्न आदि भिक्षुओं प्रतिमाप्रतिपन्नादिभिक्षननुवर्तते, तेनात्र साधर्मिकत्वं से संबंधित बतलाया गया है, इसलिए प्रस्तुत आलापक में 'सार्मिकता' विशिष्टं परिभाषितमस्ति–'समाणा सरिसा वा धम्मिया की विशेष परिभाषा है-समान अथवा सदृश धर्म वाले सार्मिक साहम्मिया, जति ते एगट्ठा न मुंजंति तहावि ते अभिग्गह- कहलाते हैं। यद्यपि वे एक साथ भोजन नहीं करते, फिर भी वे साहम्मिया एगल्लविहारसाहम्मिया य संभोइया गणिज्जति ।' अभिग्रह और एकलविहार की दष्टि से मार्मिक और मांभोशिक गिने
जाते हैं। यथेषणीयम्-एषणानुरूपम् ।
यथेषणीय का अर्थ है-एषणा के अनुरूप । १२१. अहं वावि तेण अहातिरित्तेणं अहेसणिज्जेणं अहापरिग्गहिएणं असणेण वा पाणेण वा खाइमेण वा साइमेण वा
अभिकंख साहम्मिएहिं कीरमाणं वेयावडियं सातिज्जिस्सामि । सं०-अहं वापि तेन यथातिरिक्तेन यथैषणीयेन यथापरिगृहीतेन अशनेन वा पानेन वा खाद्येन वा स्वाद्येन वा अभिकांक्ष्य सार्मिकः क्रियमाणं वयापृत्यं स्वादयिष्यामि । मैं भी सार्मिकों के द्वारा अपनी आवश्यकता से अधिक, अपनी कल्प-मर्यादा के अनुसार ग्रहणीय तथा अपने लिए लाए हुए अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य से निर्जरा के उद्देश्य से उनके द्वारा की जाने वाली सेवा का अनुमोदन करूंगा।
१२२. लाघवियं आगममाणे ।
सं०-लाघविकं आगच्छन् ।
वह लाघव का चिन्तन करता हुआ सेवा का प्रकल्प करे। १२३. तवे से अभिसमण्णागए भवति ।
सं०-तपस्तस्य अभिसमन्वागतं भवति ।
सेवा का प्रकल्प करने वाले मुनि के अवमौदर्य तथा वैयावृत्य तप होता है। १२४. जमेयं भगवता पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सम्वतो सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया।
सं०-यदिदं भगवता प्रवेदितं, तदेव अभिसमेत्य सर्वतः सर्वात्मतया समत्वमेव समभिजानीयात् । भगवान ने जैसे सेवा के प्रकल्पों का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से, सर्वात्मना (सम्पूर्ण रूप से)
समत्व का सेवन करे किसी की अवज्ञा न करे। १२५. जस्स णं भिक्खुस्त एवं भवति-से गिलामि च खलु अहं इमम्मि समए इमं सरीरगं अणुपुव्वेणं परिवहित्तए, से
आणुपुग्वेणं आहारं संबज्जा , आणपुग्वेणं आहारं संवदे॒त्ता, कसाए पयणुए किच्चा समाहिअच्चे फलगावयट्ठी, उट्ठाय भिक्खू अभिणिव्वुडच्चे। सं०-यस्य भिक्षोः एवं भवति--अथ ग्लायामि च खलु अहं अस्मिन् समये इदं शरीरकं अनुपूर्वेण परिवोढुं, स आनुपूर्व्या आहारं संवर्तयेत्, आनुपूर्त्या आहारं संवयं, कषायान् प्रतनून् कृत्वा समाहितार्चः फलकावतष्टी, उत्थाय भिक्षुः अभिनिवृतार्चः । जिस भिक्षु को ऐसा संकल्प होता है-मैं इस समय समयोचित क्रिया करने के लिए इस शरीर को वहन करने में ग्लान (असमर्थ) हो रहा हूं। वह भिक्षु क्रमशः आहार का संवर्तन करे । आहार का संवर्तन कर कषायों को कृश करे। कषायों को कृश कर समाधिपूर्ण भाव वाला, फलक की भांति शरीर और कषाय दोनों ओर से कृश बना हुआ भिक्षु समाधिमरण के लिए उत्थित होकर शरीर को स्थिर-शान्त करे।
भाष्यम् १२१-१२५–स्पष्टमेव ।
स्पष्ट है।
१. आचारांग चूणि, पृष्ठ २८५।
२. द्रष्टव्यम्-आयारचूला, ११४०-४७ ।
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