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आचारांगभाष्यम
१२६. अणुपविसित्ता गामं वा, णगरं वा, खेडं वा, कब्बडंबा, मडंबं वा, पट्टणं वा, दोणमुहं वा, आगरं वा, आसमं वा,
सण्णिबेसं वा, णिगमं वा, रायहाणिवा, तणाई जाएज्जा, तणाई जाएत्ता से तमायाए एगंतमवक्कमेज्जा, एगंतमवक्कमेत्ता अप्पंडे अप्प-पाणे अप्प-बीए अप्प-हरिए अप्पोसे अप्पोदए अप्पुत्तिंग-पणग-दगमट्टिय-मक्कडासंताणए, पडिलेहिय-पडिलेहिय पमज्जिय-पमज्जिय तणाइं संथरेज्जा, तणाई संथरेत्ता एस्थ वि समए कायं च, जोगं च, इरियं च, पच्चक्खाएज्जा। सं०-अनुप्रविश्य ग्रामं वा, नगरं वा, खेटं वा, कर्बट वा, मडम्बं वा, पत्तनं वा, द्रोणमुखं वा, आकरं वा, आश्रमं वा, सन्निवेशं वा, निगमं वा, राजधानी वा, तृणानि याचेत । तृणानि याचित्वा स तान्यादाय एकान्तमवक्रामेत् एकान्तमवक्रम्य अल्पाण्डे अल्पप्राणे अल्पबीजे अल्पहरिते अल्पावश्याये अल्पोदके अल्पोत्तिंग-पनक-दक-मृत्तिका-मर्कटसंताने प्रतिलिख्य प्रतिलिख्य प्रमृज्य प्रमृज्य तृणानि संस्तरेत्, तृणानि संस्तीर्य अत्रापि समये कायं च योगं च ईयां च प्रत्याख्यायात् । वह संलेखना करने वाला भिक्षु शारीरिक शक्ति होने पर गांव, नगर, खेड़ा, कर्वट, मडंब, पत्तन, द्रोणमुख, आकर, आश्रम, सन्निवेश, निगम या राजधानी में प्रवेश कर घास की याचना करे। उसे प्राप्त कर गांव आदि के बाहर एकांत में चला जाए। वहां जाकर जहां कीट-अण्ड, जीव-जन्तु, बीज, हरित, ओस, उदक, चींटियों के बिल, फफूंदी, दलदल या मकड़ी के जाले न हों वैसे स्थान को देखकर, उसका प्रमार्जन कर, घास का बिछौना करे । बिछौना कर उस समय प्रायोपगमन अनशन कर शरीर, उसकी प्रवृत्ति और गमनागमन का प्रत्याख्यान करे। भाष्यम् १२६-पूर्व (१०६ सूत्रे) इङ्गिनीमरणनाम
पहले १०६वें सूत्र में इंगिनीमरण नामक अनशन की विधि कस्य अनशनस्य विधिःप्रदर्शितः । प्रस्तुत सूत्रे प्रायोप- बतलाई गई थी। प्रस्तुत आलापक में प्रायोपगमन अनशन की विधि गमनस्य विधिरुपदय॑ते । स भिक्षुः प्रामादीनां बतलाई जा रही है । वह भिक्षु गांव आदि किसी एक स्थान में प्रवेश अन्यतरस्मिन अनप्रविश्य तृणानि याचित्वा एकान्तमव- कर, घास की याचना कर गांव के बाहर एकांत में चला जाए और क्रम्य स्थानविशोधिं कृत्वा तानि तृणानि संस्तृणाति । वहां स्थान की विशोधि कर घास का बिछौना करे। इस प्रसंग में अत्र चणिपरम्परा-तस्मिन् संस्तरे समारुह्य अर्हद्भ्यः चूणि की परम्परा यह है-वह मुनि उस बिछौने पर बैठकर, अर्हत सिद्धेभ्यो नमस्करोति, स्वयमेव पञ्चमहाव्रतानि और सिद्ध को नमस्कार करता है, स्वयं ही पांच महाव्रतों का आरोहण आरोहति, ततश्च प्रायोपगमनमधिकरोति । चतुर्विध- करता है और फिर प्रायोपगमन अनशन को स्वीकार करता है। वह माहारं प्रत्याख्याति, कायं प्रत्याख्याति-यदि निषण्णः तहि चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान कर, शरीर का प्रत्याख्यान करता है --- निषण्ण एव, यदि शयित: तहि शयित एव तिष्ठति । योगं यदि उस समय बैठा हो तो बैठा ही रहता है और यदि सोया निरुणद्धि-शरीरस्य आकुञ्चनप्रसारणादिकं न करोति। हो तो सोया ही रहता है। वह योग का निरोध करता है -शरीर मनसः एकाग्रतां करोति, वाचं च निरुणद्धि । ईयां च का संकुचन, प्रसारण आदि नहीं करता। वह मन को एकाग्र करता प्रत्याख्याति-गमनागमनादिकं न करोति । एष है, वाणी का निरोध करता है और ईर्या का प्रत्याख्यान करता हैप्रायोपगमनविधिः।
गमनागमन आदि नहीं करता। यह प्रायोपगमन अनशन की विधि है । १२७. तं सच्चं सच्चावादी ओए तिण्णे छिन्न-कहकहे आतीतठे अणातीते वेच्चाण भेउरं कायं, संविहणिय विरूवरूवे
परिसहोवसग्गे अस्सि बिस्सं भइत्ता मेरवमणचिण्णे। सं०- तत् सत्यं सत्यवादी ओजः तीर्णः छिन्नकथंकथः आतीतार्थः अनादत्तः विदित्वा भिदुरं कायं संविधूय विरूपरूपान् परीषहोपसर्गान् अस्मिन् विष्वग् भक्त्वा भैरवमनुचीर्णः । वह अनशन सत्य है । उसे सत्यवादी-प्रतिज्ञा का निर्वाह करने वाला, वीतराग, संसार-समुद्र का पार पाने वाला, 'अनशन का निर्वाह होगा या नहीं' इस संशय से मुक्त, सर्वथा कृतार्थ, परिस्थिति से अप्रभावित, शरीर को क्षणभंगुर जानकर, नाना प्रकार के परीषहों और उपसर्गों को मथकर 'जीव पृथक् है, शरीर पृथक है'-इस भेद-विज्ञान की भावना तथा भैरव अनशन का अनुपालन करता हुआ। क्षुब्ध न हो। भाष्यम् १२७-द्रष्टव्यम्-१०७ ।
देखें--१०७ । १२८. तत्थावि तस्स कालपरियाए।
सं०-तत्रापि तस्य कालपर्यायः । ऐसा करने पर भी उसकी वह काल-मृत्यु होती है।
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