________________
३८०
पंचमो उद्देसो : पांचवां उद्देशक
1
६२. जे भिक्खू दोहि वह परिवसिते पायत एहि, तस्स णं णो एवं भवति सं० यो भिक्षु द्वाभ्यां वस्त्राभ्यां पर्युषितः पात्रतृतीयाभ्यां तस्य नो एवं भवति जो भिक्षु दो वस्त्र और एक पात्र रखने की मर्यादा में स्थित है, उसका मन करूंगा ।
६३. से अहेसमज्जाई बचाई जाए।
सं०
स यथैषणीयानि वस्त्राणि याचेत ।
वह यथा- एषणीय अपनी-अपनी कल्प-मर्यादा के अनुसार वस्त्रों की याचना करे ।
६४. अहापरिग्गहियाई स्थाई घारेज्जा |
सं० यथापरिगृहीतानि वस्त्राणि धारयेत् ।
वह यथा-परिगृहीतवस्त्रों को धारण करेन छोटा-बड़ा करे और न संवारे ।
६५. जो धोएग्जा, जो रएन्जा, णो धोय-रसाई बश्थाई घारेज्जा ।
सं० - नो धावेत्, नो रजेत्, नो धोतरक्तानि वस्त्राणि धारयेत् ।
वह उन वस्त्रों को न धोए, न रंगे और न धोए रंगे हुए वस्त्रों को धारण करे ।
६६. अपलिचमाणे गामंतरेसु ।
सं० – अपरिकुञ्चन् ग्रामान्तरेषु ।
वह ग्रामान्तर जाता हुआ वस्त्रों को छिपाकर नहीं चलता ।
६७. ओमचेलिए ।
सं० - अवमचेलिकः ।
वह अल्प (अतिसाधारण) वस्त्र धारण करता है ।
६८. एवं खु तस्स भिक्स्स सामग्गियं ।
सं०- एतत् खलु तस्य भिक्षोः सामग्र्यम् ।
यह वस्त्रधारी भिक्षु की सामग्री ( उपकरण-समूह ) है ।
७०. अदुवा एगसाडे ।
--
६९. अह पुण एवं जाणेज्जा-उवाइक्कते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवन्ने, अहापरिजुष्णाई वत्थाइं परिवेज्जा, अहापरिजुणाई वत्याहं परिद्ववेत्ता-
सं० – अथवा एकशाटः ।
या वह एक शाटक रहे ।
सं० अथ पुनः एवं जानीयात् - उपातिक्रान्तः खलु हेमन्तः, ग्रीष्मः प्रतिपन्नः यथापरिजीर्णानि वस्त्राणि परिष्ठापयेत्, यथापरिजीर्णानि वस्त्राणि परिष्ठाप्य -
fer यह जाने कि हेमन्त बीत गया है, प्रीष्म ऋतु आ गई है, तब वह यथा- परिजीर्ण वस्त्रों का विसर्जन करे। उनका विसर्जन
कर-
Jain Education International
आचारांग माध्यम्
For Private & Personal Use Only
तइयं वत्थं जाइस्सामि ।
तृतीयं वस्त्रं याचिष्ये ।
ऐसा नहीं होता कि मैं तीसरे वस्त्र की याचना
www.jainelibrary.org