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अ० ८. विमोक्ष, उ० ४.
सूत्र ५६-६१
भाष्यम् ५९ – तस्यां उपसर्गावस्थायां असहनीये वा मोहनीये तस्य उपसर्गप्राप्तस्य भिक्षोः एष कालपर्याय: अप्रतिषिद्धोस्ति - कारणे पुण अपडिकुट्ठाई, तं जहा बेहानसे व पट्टे चेव ।
६०. से वि तत्थ विअंतिकारए ।
सं० -- सोऽपि तत्र व्यन्तिकारकः ।
उस मृत्यु से वह अन्तक्रिया करने वाला भी हो सकता है ।
भाष्यम् ६०– स एवं कारणिकं मृत्युं म्रियमाणो भिक्षुः तत्र व्यतिकारक:-अन्तक्रियाकारकः सर्वकर्मक्षय कारक इति यावत् भवति ।
ति बेमि ।
६१. इच्तं विमोहाय तणं हियं सुहं खयं णिस्सेयसं आणुगामियं । सं०] इत्येतत् विमोहावतनं हितं सुखं क्षमं निःश्रेयसं अनुगामिकम् । इति ब्रवीमि ।
यह मरण प्राण-विमोह की साधना का आयतन हितकर, सुखकर कालोचित, कल्याणकारी और भविष्य में साथ देने वाला होता
है। ऐसा मैं कहता हूं।
भाष्यम् ६१ - एतन्मरणं कालमोहव्यपनोदाय स्वीक्रियते इति हेतोः एतत् विमोहसाधनाया आयतन हितकरं शुभं सुखकरं वा, क्षमं कालोचितं निःश्रेयसं कल्याणकारि, आनुगामिकं पुनर्बोधिलाभाय भवति ।
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१. आचारांग चूर्णि, पृष्ठ २७६ : 'कालकरणं कालमज्जाओ ।' २. अंगसुत्ताणि १, ठाणं २।४१३ ।
३. आचारांग चूर्णि, पृष्ठ २७६ : 'तस्स तं कारणमासज्ज उवसग्गमरणमेव गणिज्जति, इति एवं अववाइयं मरणं अतीतकाले अणंता साहू मरिता निव्वाणगमणं पत्ता ।' ४. वृत्ती 'विगतमोहनामायतनं आधपः कर्तव्यतया इति व्याख्यातमस्ति । ( आचारांग वृत्ति, पत्र २५३ )
५. बाईस परीग्रह में स्त्री और सत्कार- ये दो परोषह शीत और शेष बीस परीवह उष्ण होते हैं (आचारांग नियुक्ति, गाथा २०२ ) । प्रस्तुत प्रकरण में शीतस्पर्श का अर्थ स्त्री परीव या कामभोग है।
भिक्षु भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर जाता है, उस समय उसके पारिवारिक लोग उसे घर में रखने का प्रयत्न करते हैं अथवा किसी अन्य घर में जाने पर कोई स्त्री मुग्ध होकर उसे अपने घर में रखने का प्रयत्न करती है। उस स्थिति में उसे क्या करना चाहिए ? प्रस्तुत आलापक में सूत्रकार ने इसका निर्देश दिया है।
मरण दो प्रकार का होता है-बाल-मरण और पण्डित
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उस उपसर्ग की अवस्था में अथवा असहनीय मोहनीय कर्म की स्थिति में उपसर्ग में फसे उस भिक्षु का यह कालपर्याय ( फांसी लगा कर मरना) अप्रतिषिद्ध है । स्थानांग में कहा है- शीलरक्षा आदि प्रयोजन होने पर मुनि के लिए दो प्रकार के मरण अनुमत हैंवैहायस मरण - फांसी लगाकर मरना तथा गृद्धस्पृष्ट मरण - बृहत्काय वाले जानवर के शव में प्रवेश कर शरीर का व्युत्सगं करना ।
उस प्रकार की कारणिक आपवादिक मृत्यु से मरने वाला वह भिक्षु अन्तक्रिया करने वाला अर्थात् पूर्ण कर्म-क्षय करने वाला होता है।
यह मरण कालमोह-मृत्यु की मूछों को दूर करने के लिए स्वीकार किया जाता है। इसलिए यह विमोह की साधना का आयतन हितकर, शुभकर अथवा सुखकर कालोचित, कल्याणकारी तथा पुनः बोधि की उपलब्धि के लिए होता है ।
मरण । वैहायस फांसी लगाकर मरना बाल-मरण है । अनशन पण्डित मरण है ( भगवती सूत्र, २०४९ ) । किन्तु तात्कालिक परिस्थिति में फंसा हुआ भिक्षु अनशन का प्रयोग कैसे करे ? उस समय ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए उसे वैहायस-मृत्यु के प्रयोग की स्वीकृति दी गई है। इस स्थिति में वह बाल-मरण नहीं है ।
सूत्रकार यहां एक स्थिति की ओर संकेत करते हैं । कोई भिक्षु भिक्षा के लिए जाए। पारिवारिक लोग उसकी पूर्व पत्नी सहित उसे कमरे में बंद कर दें। वह उससे बाहर निकल न सके। उसकी पूर्व पत्नी उसे विचलित करने का प्रयत्न करे। तब वह श्वास बंद कर मृतक जैसा हो जाए और अवसर पाकर गले में दिखावटी फांसी लगाने का प्रयत्न करे। उस समय वह स्त्री कहे- आप चले जाएं, किन्तु प्राण त्याग न करें। तब भिक्षु आ जाए और यदि वह स्त्री उसे ऐसा न कहे, तो वह गले में फांसी लगाकर प्राण त्याग कर दे। ऐसा करना बाल-मरण नहीं है - यह भगवान् महावीर के द्वारा अनुज्ञात है ।
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