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आचारांगभाध्यम ५६. जमेयं भगवया पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया।
सं०-यदिदं भगवता प्रवेदितं, तदेव अभिसमेत्य सर्वत: सर्वात्मतया समत्वमेव समभिजानीयात् । भगवान् ने जैसे अल्प-वस्त्रत्व का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से, सर्वात्मना (संपूर्ण रूप से) समत्व का सेवन करे-किसी की अवज्ञा न करे।
भाष्यम् ५६-द्रष्टव्यम्-६।६५ ।
देखें-६।६५ । ५७. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति-पुट्ठो खलु अहमंसि, नालमहमंसि सोय-फासं अहियासित्तए, से वसुमं सव्व-समन्नागय
पण्णाणेणं अप्पाणेणं केइ अकरणाए आउट्टे । सं०-यस्य भिक्षोः एवं भवति -- स्पृष्टः खलु अहमस्मि, नालमहमस्मि शीतस्पर्श अधिसोढं, स वसुमान् सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेन आत्मना कश्चिद् अकरणतया आवृत्तः । जिस भिक्ष को यह लगे-मैं शोतस्पर्श-स्त्री परीषह से आक्रांत हो गया हूं और मैं इसको सहन करने में समर्थ नहीं हूं, उस स्थिति में कोई-कोई संयमी भिक्षु अपनी सम्पूर्ण प्रज्ञा और अन्तःकरण को काम-वासना से समेट कर उसका सेवन नहीं करने के लिए उद्यत हो जाता है।
भाष्यम् ५७ --शीतस्पर्शपदेन परीषहद्वयस्य ग्रहणं 'शीतस्पर्श'-पद से दो परीषहों-स्त्री परीषह तथा सत्कारकृतमस्ति-स्त्रीपरीषहः सत्कार-पुरस्कारपरीषहश्च । पुरस्कार परीषह का ग्रहण किया गया है। जिस भिक्षु को यह यस्य भिक्षोरेवं भवति - स्पृष्टोहमस्मि शीतस्पर्शन, तं लगे कि मैं शीतस्पर्श (स्त्री परीषह) से आक्रांत हो गया हूं और मैं अधिसोढुं नालमहमस्मि सुदर्शनवत् ।' प्राप्तायामस्याम- उसको सहन करने में सुदर्शन की भांति समर्थ नहीं हूं। ऐसी स्थिति वस्थायां कश्चित् सर्वसमन्वागतप्रज्ञान: तस्य प्राप्त हो जाने पर कोई पूर्ण प्रज्ञावान् मुनि 'काम' का सेवन न करने अकरणाय-अनासेवनाय आवृत्तो' भवति ।
के लिए उद्यत हो जाता है। ५८. तवस्सिणो हतं सेयं, जमेगे विहमाइए।
सं० --तपस्विनः खलु तत् श्रेयः यदेक: विहमाददीत । उस तपस्वी के लिए वह श्रेय है कि वह ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए फांसी लेकर प्राण-विसर्जन कर दे।
भाष्यम् ५८ -कश्चिद् अबलो भवति। मनसा वाचा कोई मुनि दुर्बल होता है। वह मनसा-वाचा-कर्मणा इन्द्रियकायेन च नात्मानं विषयेभ्यः प्रतिसंहर्तुं प्रत्यलः। तस्य विषयों से अपने आपको दूर करने के लिए समर्थ नहीं होता। उस तपस्विनः विहितमार्गेण प्राणत्यागःश्रेयान् । विधिश्चात्र- तपस्वी मुनि के लिए विहित-मार्ग से प्राण-त्याग करना श्रेयस्कर है। तस्यां स्त्रीभिः सन्निरुद्धावस्थायां स विहमिति आकाशं उसकी विधि यह है-यदि स्त्रियां उसे रोक ले तो उस स्थिति में मुनि आददीत । अत्र प्राचीनपरम्परा
विह अर्थात् आकाश को स्वीकार करे-गले में फांसी डालकर प्राणकइतवउम्बंधणं, सा य तं वारेति विद्धंसेज्जत्ति तो सुंदरं, विसर्जन कर दे। इस प्रसंग की प्राचीन परम्परा यह है-यदि स्त्री अह ण विसज्जेति ताहे चितेइ-मा मे भंगो भविस्सति उम्बं- उसे आक्रांत कर ले तो वह दिखावटी फांसी लगाने का प्रयत्न करे । धिज्जावि।
उस समय यदि वह स्त्री उस मुनि को फांसी लगाने से रोके, उसे छोड़ दे तो अच्छा है। यदि न छोड़े तब वह-'मेरे संयम का भंग न हो',
यह सोचकर फांसी लगा ले। ५६. तत्यावि तस्स कालपरियाए।
सं०-तत्रापि तस्य कालपर्यायः ।
ऐसा करने पर भी उसकी वह काल-मृत्यु होती है। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २७५ : जहा सुदंसणो गाहावई तहा ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २७५ : आउट्टित्ति वा अन्मट्टित्ति णालमहं तं पडुप्पन्न अहियासेउं ।
वा एगट्ठा। २. अष्टव्यम्-आयारो, १३१७४ सूत्रम् ।
४. वही, पृष्ठ २७५।
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