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अ०८. विमोक्ष, उ०४. सूत्र ४६-१५
३७७ क्वचित्पावत्ति बित्ति, शीताशङ्कया नाद्यापि उत्तर वस्त्र रखता है। कभी वह वस्त्र ओढ़ता है और कभी उसको परित्यजति, अथवाऽवमचेल एककल्पपरित्यागात अपने पास रख लेता हैं। शीत की आशंका से वह अब भी उन वस्त्रों द्विकल्पधारीत्यर्थः ।
को नहीं छोड़ता। अथवा वह अवमचेलक-अल्पवस्त्रधारी होता है-एक वस्त्र का परित्याग करने पर केवल दो वस्त्रमात्र धारण करता है।
५२. अदुवा एगसाडे।
सं०-अथवा एकशाटः । या वह एक-शाटक रहे।
भाष्यम् ५२-- अथवा यदि द्वे वस्त्रे अतिजीणे, एक अथवा यदि दो वस्त्र अतिजीर्ण हो गए हों, एक साधारण है, साधारणं, तदानीं जीर्णयोः परिष्ठापनं कृत्वा स भिक्षुः तब वह भिक्षु दोनों जीर्ण वस्त्रों को विसजित कर एक शाटक-एक एकशाटो भवति । अत्र चुणिमतं
वस्त्रधारी हो जाता है। इस प्रसंग में चूर्णिकार कहते हैं-एक वस्त्र __एगं धरेतिसि एगसाडो, यदुक्तं भवति–एगप्रावरणो, धारण करने के कारण वह एकशाटक होता है। उसे एक प्रावरण
"इतरहा हि तस्स चोलपट्टोवि ण कम्पति, कतो पुण वाला कहा जा सकता है। अन्यथा तो उसके 'चोलपट्टा' भी नहीं साडओ ?'
कल्पता, शाटक की तो बात ही कहां?
५३: अदुवा अचेले।
सं०-अथवा अचेलः। या वह अचेल (वस्त्ररहित) हो जाए।
भाष्यम् ५३-अथवा सर्वथा अपगते शीते स अचेलो अथवा शीत ऋतु के सर्वथा व्यतीत हो जाने पर वह अचेल हो भवति । तात्पर्यमस्य-प्रयोजनं विना वस्त्रं न धारयेत् । जाता है । इसका तात्पर्य यह है कि मुनि प्रयोजन के बिना वस्त्र धारण वस्त्रधारणस्य त्रीणि प्रयोजनानि स्थानांगे सन्ति न करे । स्थानांग सूत्र में वस्त्र-धारण के तीन प्रयोजन निर्दिष्ट हैंनिर्दिष्टानि-तिहि ठाणेहि वत्थं धरेज्जा, तं जहा-हिरिपत्तियं, (१) लज्जा निवारण के लिए (२) जुगुप्सा (घृणा) निवारण के लिए दुगुंछापत्तियं, परीसहवत्तियं ।'
(३) परीषह निवारण के लिए।
५४. लाघवियं आगममाणे ।
सं०-लाघविकं आगच्छन् । वह लाघव का चिन्तन करता हुआ बस्त्र का क्रमिक विसर्जन करे।
भाष्यम् ५४----स भिक्षुः लाघवार्थं क्रमश: वस्त्राणां न्यूनतां करोति । शेषं ६।६३ भाष्यवत् ।
वह भिक्षु लाघव के लिए वस्त्रों की क्रमिक अल्पता करता है। शेष ६।६३ भाष्य की भांति ।
५५. तवे से अभिसमन्नागए भवति ।
सं०-तपस्तस्य अभिसमन्वागतं भवति । अल्प वस्त्र वाले मुनि के उपकरण-अवमौदर्य तथा कायक्लेश तप होता है।
भाष्यम् ५५-द्रष्टव्यम्-६१६४ ।
देखें-६६४ ।
१. आचारांग वृत्ति, पत्र २५२ ।
द्रष्टव्यम्-उत्तरायणाणि २३।२९ का टिप्पण।
२. आचारांग चूणि, पृष्ठ २७४ । ३. अंगसुत्ताणि १, ठाणं ३१३४७ ।
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