Book Title: Acharangabhasyam
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 433
________________ अ० ८. विमोक्ष, उ० ६. सूत्र १०६-१०७ ३८६ सं०-- अनुप्रविश्य ग्रामं वा, नगरं वा, खेटं वा, कर्बट वा, मडम्ब वा, पत्तनं वा, द्रोणमुखं वा, आकरं वा, आश्रमं वा, सन्निवेश वा, निगम वा, राजधानी वा तृणानि याचेत । तृणानि याचित्वा स तान्यादाय एकांतमवक्रामेत्, एकान्तमवक्रम्य अल्पाण्डे अल्पप्राणे अल्पबीजे अल्पहरिते अल्पावश्याये अल्पोदके अल्पोत्तिग-पनक-दक-मृत्तिका-मर्कटसंताने प्रतिलिख्य प्रतिलिख्य प्रमृज्य प्रमृज्य तृणानि संस्तरेत्, तृणानि संस्तीर्य अत्रापि समये इत्वरिकं कुर्यात् । वह संलेखना करने वाला भिक्षु शारीरिक शक्ति होने पर गांव, नगर, खेड़ा, कर्वट, मडंब, पत्तन, द्रोणमुख, आकर, आश्रम, सन्निवेश निगम या राधधानी में प्रवेश कर घास की याचना करे। उसे प्राप्त कर गांव आदि के बाहर एकांत में चला जाए। वहां जाकर जहां कीट-अण्ड, जीव-जन्तु, बीज, हरित, ओस, उदक, चींटियों के बिल, फफूंदी, दलदल या मकड़ी के जाले न हों, वैसे स्थान को देखकर, उनका प्रमार्जन कर, घास का बिछौना करे। बिछौना कर उस समय 'इत्वरिक अनशन' करे। भाष्यम् १०६ --इत्वरिकम् - इङ्गिनीमरणम् । अत्र इत्वरिक का अर्थ है-इंगिनीमरण। चूणि और वृत्ति में चुणों वृत्तौ च 'इत्वरिक' शब्दस्य विमर्शः कृतोस्ति। इत्वरिक शब्द का विमर्श किया गया है। भगवती में तपस्या के दो भगवत्या तपसो द्वौ प्रकारावुक्तो-इत्वरिकं यावत्- प्रकार बतलाए गए हैं- इत्वरिक और यावत्कथिक । इत्वरिक है अल्पकथिकञ्च। तत्र इत्वरिकं अल्पकालिकं तपः, यावत्- कालिक तप और यावत्कथिक है आजीवन आहार का परित्याग । कथिक आजीवनमाहारत्यागः ।' अत्र एतद इत्वरिकं प्रस्तुत प्रकरण में इत्वरिक तप प्रासंगिक नहीं है। यहां 'इत्वरिक' पद प्रासङ्गिकं नास्ति। अत्र इत्वरिकपदेन इङ्गिनीमरण- से 'इंगिनीमरण' नामक अनशन की सूचना है। समवायांग में उसका संज्ञक अनशनं सूचितमस्ति । समवायाने तस्योल्लेखो उल्लेख है । इस अनशन में स्थान (खड़ा रहना), शय्या (सोना) और विद्यते । अस्मिन्ननशने स्थानं, शय्या, निषद्या वा अल्प- निषद्या (बैठना) अल्पकालिक होती है, इसलिए इसे इत्वरिक कहा कालिकी भवति, तेन एतद् इत्वरिकपदेनाभिधीयते। गया है। १०७.तं सच्चं सच्चावादी ओए तिण्णे छिण्ण-कहकहे आतीतठे अणातीते वेच्चाण भेउरं कायं, संविहणिय विरूवरूवे परिसहोवसग्गे अस्सि विस्सं भइत्ता भेरवमणुचिण्णे । सं०-तत् सत्यं सत्यवादी ओजः तीर्णः छिन्नकथंकथः आतीतार्थः अनादत्तः विदित्वा भिदुरं कायं संविधूय विरूपरूपान् परीषहोपसर्गान अस्मिन् विष्वग् भक्त्वा भैरवं अनुचीर्णः । १. अंगसुत्ताणि २, भगवई २५५५९-५६१ । पोपगमनापेक्षया नियतदेशप्रचाराभ्युपगमादिङ्गित२. अंगसुत्ताणि १, समवाओ १७१९ । मरणमुच्यते, न तु पुनरित्वरं, साकारं प्रत्याख्यानं, ३. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २८२-२८३ : 'इत्तिरियं णाम साकारप्रत्याख्यानस्यान्यस्मिन्नपि काले जिनकल्पिअप्पकालियं, त केयि मण्णंति-इत्तिरियं भत्तपच्च कादेरसम्भवात्, किंपुनर्यावत्कथिकभक्तप्रत्याख्यानाखाइयं, यदुक्तं भवति-सागारं जति, एत्तो रोगायं वसर इति, इत्वरं हि रोगातुरः श्रावको विधत्ते, तद्यथाकाओ मुच्चीहामी गहिं बारसहि दिवसेहिं तो मे यद्यहमस्माद्रोगात् पञ्चषरहोभिर्मुक्तः स्यां ततो भोक्ष्ये, णवरि कप्पति पारेत्तए, अह ण मुच्चामि तो मे तहा नान्यथेत्यादि, तदेवमित्वरम्-इंङ्गितमरणं धृति पच्चक्खायमेव भवतु, सागारं भत्तं पच्चक्खाति, संहननादिबलोपेतः स्वकृतत्वग्वर्तनादिक्रियो यावज्जीवं इतरसद्दमेत्तो, केइ एवं इच्छंति, तं ण भवंति, वयं चतुविधाहारनियमं कुर्यादिति, उक्तं चभणामो–एवं सावगा अभिग्गहे अभिगिण्हंति, 'पच्चक्खइ आहारं चउम्विहं णियमओ गुरुसमीवे । सेसगाओ पडिमाओ पडिवज्जंति, ण तु साहवोऽ इंगियदेसमि तहा चिट्ठपि हु नियमओ कुणइ ॥ वित्तरे, ण तु जिणकप्पिया, ते तु अण्णहपि काले उव्वत्तइ परिअत्तइ काइगमाईऽवि अप्पणा कुणइ। णिच्चं अप्पमाति, ताण सागारं पुरिमद्धमादि पच्चक्खं, सम्वमिह अप्पणच्चिअ ण अन्नजोगेण धितिबलिओ॥' कि पुण आवकहितं भत्तपच्चक्खाणमिति, जं पुण (ग) अनशन करते समय उस भिक्षु का मुख पूर्व दिशा की बुच्चति - एत्थंपि समए इत्तिरियं करेति, तं एवं ओर होना चाहिए । उसकी अंजलि मस्तक का स्पर्श जाणावेति - एसो इंगिणीमरण उद्देसिओ, चउम्विहा करती हुई होनी चाहिए । वह सिद्धों को नमस्कार हारविरओ, से जावज्जीवाए एत्थंपि समएत्ति कर इत्वरिक अनशन का संकल्प करे। इस अनशन में इंगिणीमरणकालसमए, इत्तिरियं णाम अप्पकालियं नियत्र क्षेत्र में संचरण किया जा सकता है, इसलिए ठाणसिज्जणिसीहियं करेति ।' इसे इत्वरिक कहा गया है। यहां इसका अर्थ अल्प(ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २५९ : 'इत्वर' मिति पाद कालिक अनशन नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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