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आचारांगभाष्यम् भाष्यम् ९-उपस्थिते तत्त्वचर्चाप्रसङ्गे यथा इदं' तत्त्वचर्चा का प्रसंग उपस्थित होने पर भगवान् महावीर ने भगवता प्रवेदितं तथा प्रतिपादनीयम् । भगवान् वर्धमान- इस धर्म का जैसे प्रतिपादन किया है, वैसे ही प्रतिपादन करे । भगवान् स्वामी आशुप्रज्ञोस्ति । स आशुप्रज्ञोस्ति अत एव स वर्द्धमान स्वामी आशुप्रज्ञ हैं । वे आशुप्रज्ञ हैं इसलिए वे जानते हैं, देखते जानाति, पश्यति । तेन भगवता हेतुवादः-नयवादः हैं। उन भगवान् ने हेतुवाद-नयवाद अथवा अनेकांतवाद की प्रज्ञापना अनेकांतवादो वा प्रज्ञप्तः, तेन तस्य प्रयोगः कार्यः। की। इसलिए उसका प्रयोग करना चाहिए। १०. अदुवा गुत्तो वओगोयरस्स त्ति बेमि ।
सं०-अथवा गुप्तिः वाग्गोचरस्य इति ब्रवीमि । अथवा वाणी के विषय की गुप्ति करे-मौन करे, ऐसा मैं कहता हूं।
भाष्यम् १०-मुनिना आत्मसामर्थ्य विज्ञाय तेषां मुनि अपने सामर्थ्य को जानकर उन अन्यतीथिकों के प्रश्नों का अन्यतीथिकानां प्रश्नाः समाधातव्याः अथवा वचो- समाधान करे अथवा वाणी के विषय की गुप्ति करे----यदि उनके गोचरस्य गुप्तिरालम्बनीया–यदि तेषां प्रश्नानां उत्तरं प्रश्नों का उत्तर देने में समर्थ न हो तब मौन कर ले। चूर्णि में 'गुप्ति' दातुमसमर्थः स्यात् तदा मौनमवलम्बेत । चूर्णी गुप्तिपदं पद की व्यावहारिक दृष्टि से व्याख्या की है हम आर्ष सूत्रों के पाठक व्यावहारिकदृष्ट्या व्याख्यातमस्ति-वयं आरिससुत्त- हैं । यदि तुम आर्ष सूत्रों के विषय में वाद करना चाहते हो तो हम पाढगा, जति तमेव इच्छसि ततो पागतेण वादं करेमो, सव्वहा प्राकृत भाषा में वाद करेंगे। यदि वाद से सर्वथा इनकार कर दिया अकीरमाणे सेहादिविपरिणामो भवति, सड्ढहीला सड्ढवण्णो। जाए तो शैक्ष आदि के परिणामों में विपरीतता आ जाती है, श्रावकों अह पागतेणवि असमत्थो ततो बेति-अम्ह इत्थिबालवुड्ढ- में हीलना और अवर्णवाद का प्रसंग आ जाता है। यदि प्राकृत भाषा अक्खरअयाणमाणाणं अणुकंपणत्थं सव्वसत्तसमदरिसीहिं में वाद करने में भी असमर्थ हो तो कहे-समस्त प्राणियों के प्रति अद्धमागहाए भासाते सुत्तं उवदिठें, तं च अण्णेसि पुरतो ण समदृष्टि रखने वाले भगवान महावीर ने स्त्री, बाल, वृद्ध तथा अक्षरपगासिज्जति, अतो गुत्ती वइगोयरस्स, यदुक्तं भवति-वाया- ज्ञान से अपरिचित व्यक्तियों पर अनुकंपा कर अर्धमागधी भाषा में सूत्र विसओ न, किंच-रागदोसकरो वादो। एवं जहा जहा उत्तरं का उपदेश दिया। वह दूसरों के समक्ष अभिव्यक्त नहीं किया जाता, भवति तहा तहा ठाएयव्वं ।'
इसलिए वाणी के विषय की गुप्ति की है, मौन किया है। कहा है--- आगम वाद का विषय नहीं है। वाद राग-द्वेष को उत्पन्न करता है। इस प्रकार जो देश-कालोचित उत्तर हो, उसका प्रयोग किया
जाए। वृत्तौ गुप्तिर्भाषासमितिरित्यपि व्याख्यातमस्ति ।
वृत्ति में गुप्ति भाषासमिति के रूप में भी व्याख्यात है। ११. सव्वत्थ सम्मयं पावं ।
सं०-सर्वत्र सम्मतं पापम् । हिंसा सर्वत्र सम्मत है।
भाष्यम् ११-सर्वत्र इति सर्वेषु कार्येषु यावत् तत्त्व- मुनि वादियों के समक्ष कहे-आपके सर्वत्र सभी कार्यों में, वादेऽपि पापं-हिंसाद्यनुष्ठानं सम्मतं-अभिप्रेत- तथा तत्त्ववाद में भी पाप-हिंसा का अनुष्ठान सम्मत--अभिप्रेत
१. आचारांग वृत्ति, पत्र २४३ : इदं स्याद्वादरूपं वस्तुनो
लक्षणं समस्तव्यवहारानुयायि क्वचिदप्यप्रतिहतं भगवता श्रीवर्धमानस्वामिना प्रवेदितम् । २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २५५ : आसुरिति क्षिप्रं, आसुं पयाणति ओहीनाणी मणपज्जवनाणीवी ण अणुवउत्ता जाणंति उवओगाय अंतोमुहुत्ताओ, तेण तेऽवि ण आसुपण्णा, आसुप्पण्णो भवति केवलनाणी णिच्चो णिच्चोवयोगाओ सत्वपच्चक्खाओ य आउय आसुपण्णो।'
३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २५५-२५६ । ४. आचारांग वृत्ति, पत्र २४३ : अथवा गुप्तिर्वाग्गोचरस्यभाषासमितिः कायेंत्येतत्प्रवेदितं भगवता, यदि वा अस्ति नास्ति ध्र वाघ्र वादिवादिनां वादायोत्थितानां त्रयाणां त्रिषष्ट्यधिकानां प्रावादुकशतानां वादलब्धिमतां प्रतिज्ञा. हेतुदृष्टान्तोपन्यासद्वारेण तदुपन्यस्तदूषणोपन्यासेन च तत्पराजयापादनतः सम्यगुत्तरं देयम्, अथवा गुप्तिर्वाग्गोचरस्य विधेयेत्येतदहं ब्रवीमि ।
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