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अथवा अप्रतिषिद्ध है। हमारे दर्शन में तो यह सम्मत नहीं है।
अ०८. विमोक्ष, उ० १. सूत्र १०-१४ मप्रतिषिद्धं वा अस्ति, इति वादिनां समक्षे मुनिर्वदेत्- मम तु नैतत् सम्मतम् । १२. तमेव उवाइकम्म । ___ सं0-तदेव उपातिक्रम्य ।
मुनि उस हिंसा का अतिक्रमण कर जीवन-यापन करे।
भाष्यम् १२-तस्मादेव तद उपातिक्रम्य वर्ते, अतः हिंसादिप्रसङ्गजनको वादः मम न श्रेयान् ।
इसीलिए मैं उस हिंसा (या सावध अनुष्ठान) का अतिक्रमण कर वर्तन करता हूं। अतः हिंसा आदि का प्रसंग उत्पन्न करने वाला वाद मेरे लिए श्रेयस्कर नहीं है।
१३. एस महं विवेगे वियाहिते।
सं०-एष मम विवेको व्याहृतः । यह मेरा विवेक कहा गया है।
भाष्यम् १३–एष मम' विवेकः व्याहृतः। एवं यह मेरा (या हमारा) विवेक कहा गया है। इस प्रकार मुनि मुनिना असमनुजैः विवेकः करणीयः, न तु हिंसाद्यास्रवे को अन्यतीथिक भिक्षुओं से पृथक् रहना चाहिए, हिंसा आदि आश्रवों प्रवर्तनीयम् ।
में प्रवर्तित नहीं होना चाहिए। १४. गामे वा अदुवा रणे ? व गामे व रणे धम्ममायाणह-पवेदितं माहणेण मईमया।
सं०-ग्रामे वा अथवा अरण्ये ? नैव ग्रामे नैव अरण्ये धर्ममाजानीत–प्रवेदितं माहनेन मतिमता। धर्म गांव में होता है या अरण्य में ? वह न गांव में होता है और न अरण्य में तुम जानो। मतिमान महावीर ने यह प्रतिपादित किया है।
भाष्यम् १४---ये तपस्विनः वनवासिनः ते कथं जो तपस्वी हैं, वनवासी हैं वे असमनुज्ञ कैसे हो सकते हैं ? असमनुज्ञा भवन्ति ? कथञ्च ते परिवर्जयितव्याः इति उनका परिवर्जन क्यों करना चाहिए? यह जिज्ञासा करने पर जिज्ञासिते सूत्रकारो वक्ति-ज्ञानादिपञ्चाचारानुशीलनं सूत्रकार कहते हैं-ज्ञान आदि पांच प्रकार के आचार का अनुशीलन धर्मः, स ग्रामे अरण्ये वा भवति । पञ्चाचारानुशीलनमते करना धर्म है । वह गांव में भी हो सकता है और अरण्य में भी हो नैव ग्रामे नैव अरण्ये वा धर्ममाजानीत । इदं प्रवेदितं सकता है। पांच प्रकार के आचार के अनुशीलन के बिना धर्म न गांव मतिमता माहनेन ।
में होता है और न अरण्य में होता है, यह तुम जानो । मतिमान
महावीर ने यह प्रतिपादन किया है । १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २५६ : महमिति मम, अहवा होता है।' इस विषय में शिष्य ने जिज्ञासा की तब आचार्य महंतणएण सता विवेगेणं ।
ने बताया कि धर्म का आधार आत्मा है। ग्राम और (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २४३ : एष मम विवेको
अरण्य उसके आधार नहीं हैं। इसलिए धर्म न ग्राम में व्याख्यातः।
होता है और न अरण्य में। वह आत्मा में ही होता है। २. हिंसा का अतिक्रमण कर जीवन जीना विवेक है। यह
वास्तव में आत्मा का स्वभाव ही धर्म है। व्याख्या का एक नय है। चूणि और टीका में इन तीन
पूज्यपाद देवनन्दी ने इस आशय का नयान्तर से सूत्रों (११-१३) की व्याख्या दूसरे नय से की गयी है।
निरूपण किया हैअन्यतीथिक भिक्षुओं द्वारा निमंत्रित होने पर भिक्ष कहे
'ग्रामोऽरण्यमिति द्वधा, निवासो नात्मदर्शिनाम् ।
दृष्टात्मनां निवासस्तु, विविक्तात्मेव निश्चलः॥' 'आपके दर्शन में पचन-पाचन आदि की हिंसा सम्मत
(समाधिशतक, श्लोक ७३) है। उसका अतिक्रमण करना मेरा विवेक है।'
अनात्मदर्शी साधक गांव या अरण्य में रहता है। ३. कुछ साधक 'ग्राम में धर्म होता है', यह निरूपित करते
किन्तु आत्मदर्शी साधक शुद्ध आत्मा में ही रहता है, प्राम थे। कुछ साधक यह निरूपित करते थे--'अरण्य में धर्म
या अरण्य में नहीं।
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