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अ०८. विमोक्ष, उ० ३. सूत्र ३०-३५
३७१ भाष्यम् ३३-प्राणेषु दण्डं निधाय-परित्यज्य' य: जो प्राणियों के प्रति दंड का परित्याग कर हिंसा आदि पापहिंसादिपापं कर्म अकुर्वन्नस्ति, स अहिंसक एव महान् कर्म नहीं करता, वही अहिंसक महान् अग्रंथ अर्थात् निर्ग्रन्थ कहलाता अग्रन्थः-निर्ग्रन्थः व्याहृतः। तात्पर्यभाषायां यो नास्ति है। तात्पर्य में कहा जा सकता है कि जो अपरिग्रही नहीं है, अपरिग्रही स नास्ति अहिंसकः। यो नास्ति अहिंसकः स वह अहिंसक नहीं है और जो अहिंसक नहीं है, वह अपरिग्रही नास्ति अपरिग्रही।
नहीं है। ३४. ओए जुतिमस्स खेयण्णे उववायं चवणं च णच्चा।
सं०-ओजः द्युतिमतः क्षेत्रज्ञः उपपातं च्यवनं च ज्ञात्वा । वीतराग और संयम का मर्मज्ञ मुनि जन्म और मृत्यु को जानकर अहिंसा और अपरिग्रह में प्रवृत्त हो।
भाष्यम् ३४ - इदानीं अपरिग्रहस्य आराधनायाः हेतुं अब सूत्रकार अपरिग्रह 'की आराधना का हेतु बतलाते हैं। प्रदर्शयति सूत्रकारः । य ओजः निरुपधिकत्वात् अनाश्रित- जो मुनि ओज अर्थात् उपधि रहित तथा अनाश्रित होने के कारण एक त्वात् च एकः तथा धुतिमत:--संयमस्य क्षेत्रज्ञः--ज्ञाता -अकेला और संयम का ज्ञाता होता है, वह जानता है कि जीव के भवति , स जानाति कर्महेतुको जीवस्य उपपातश्च्यवनं उपपात और च्यवन का हेतु है कर्म । महाआरंभ और महापरिग्रह से च । महारम्भमहापरिग्रहाभ्यां जीवस्य अधोगतिर्भवति जीव अधोगति में जाता है, यह जानकर वह अपरिग्रह और अहिंसा इति ज्ञात्वा स अपरिग्रहस्य अहिंसायाश्च आराधनायां की आराधना में प्रवृत्त होता है । प्रवर्तते। ___अत्र उपपातच्यवनपदे जन्ममरणयोरभिधायके इति चूर्णी के अनुसार उपपात और च्यवन-ये दो पद जन्म चाधारण स्पष्टमस्ति। अन्यागमेषु अनयो: पारिभाषि- और मरण के वाचक हैं। अन्य आगमों में ये पारिभाषिक रूप में कत्वं दृश्यते । वृत्तौ केवलं तदेव लभ्यते।'
(देवों के जन्म और मृत्यु के लिए) प्रयुक्त हैं। वृत्ति में इनका पारिभाषिक अर्थ ही उपलब्ध है।
३५. आहारोवचया देहा, परिसह-पभंगुरा । सं०-आहारोपचयाः देहाः परीषहप्रभंगुराः । शरीर आहार से उपचित होते हैं और वे परीषहों से भग्न हो जाते हैं।
भाष्यम ३५-अहिंसाया अपरिग्रहस्य च आराधनायां जो साधक अहिंसा और अपरिग्रह की आराधना में प्रवृत्त है, प्रवत्तः कथं शरीरं धारयितुं क्षमेत ? किञ्च इमे देहाः वह शरीर को कैसे धारण कर सकेगा? क्योंकि ये शरीर आहारोआहारोपचया: वर्तन्ते, इष्टेन आहारेण उपचिता भवन्ति पचय हैं, उचित आहार से उपचित होते हैं और उचित आहार के तदभावे त अपचिताः । पुनरिमे क्षुधापिपासापरीषहाभ्यां अभाव में अपचित हो जाते हैं और ये शरीर क्षुधा, पिपासा प्रभङ्गुरा:-प्रभज्यन्ते दुर्बलीभवन्तीति यावत् । परीषहों से भग्न हो जाते हैं अर्थात् दुर्बल हो जाते हैं।
१. आचारांग चूणि, पृष्ठ २६८ : उंडं घायणं वारणंति
२. (क) णिक्खित्तदण्डा-द्रष्टव्यम्, आयारो ४०५, ६।३। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २४९ : निधाय क्षिप्त्वा
त्यक्त्वा । ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २६८ : ओयो णाम एगो, यदुक्तं __ भवति -- रागदोसरहितो णिरुवहियत्ता अणासियत्तातो य । ४. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २६८ : जुतिमं संजमो,
खेयण्णो णाम जाणगो, जुतिमस्स खेयण्णो, जं भणितं-संजाणगो, अहवा जुत्तिमं सिद्धिक्षेत्र, तंतु सब्वंतिमेहितो जुत्तिम-जाजल्लमाणं एवमादि ।
(ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २४९ : द्युतिमान संयमो मोक्षो
वा। ५. आचारांग चूणि, पृष्ठ २६८-२६९ : केवली भगवं इमं
जाणइ--जेहिं कम्मेहिं जह उववज्जति, तं जहा–नेरइएसु ताव महारंभयाए महापरिग्गयाए जाव देवाणं, घुयंचयणं च । तं च जाणइ जो जत्तियं जीवित्ता चयति, अहवा उववातो नारगदेवाणं, तिरियमणुस्साणं जम्म, चयणं
जोइसियवैमानिकानां, सेसाणं उब्वट्टणं । ६. द्रष्टव्यम्-पण्णवणा ६।४६ । ७. आचारांग वृत्ति, पत्र २४९ : देवलोकेऽप्युपपातं च्यवनं च ।
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