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कायेषु दण्डं समारभन्ते तेषामपि वयं लज्जामहे परिहरामो दयामहे वा । लज्जायाः हेतुरयं यद् भिक्षुत्वं स्वीकृत्यापि सूक्ष्मजीवान् प्रति ते न दयालबः भिक्षु रूपेण ते अस्माकं समकोटिका: अतस्तेषां अहिंसां प्रति उदासीनतां दृष्ट्वा अस्माकं लज्जायाः अनुभवो जायते ।
दंडभो दंडं समारभेज्जासि । त्ति बेमि ।
२० तं परिष्णाय मेहावी तं वा दंड, अण्णं वा दंडं, णो सं० तं परिज्ञाय मेधावी तं वा दण्डं, अन्यं वा दण्डं, नो दण्डभी: दण्डं समारभेत । इति ब्रवीमि । दंड-भीरु मेधावी उस कर्म समारम्भ का विवेक कर पूर्वकथित या अन्य किसी प्रकार के दंड का प्रयोग न करे। ऐसा मैं
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भाष्यम् २० -- अहिंसायाः आचरणे विशिष्टो हेतुरस्ति अभय: । भीतो जनो नार्हति अहिंसामाचरितुम्। यश्च सर्वात्मना अभयो भवति स एव दण्डभीरुः । अभयदण्ड भीरुपदयोः नास्ति कश्चिद् विरोधः यो जीवानां बधात् बिभेति स एव दण्डभीयर्भवति तादृशो न जीवेभ्यो । बिभेति न च जीवान् भाययति, अत एव स अभयो भवति । यश्च अभयो भवति स एव दण्डसमारंभात विरतो भवति ।
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आचारांग भाव्यम्
लज्जा
का प्रयोग करते हैं, उनके प्रति भी हम जा का अनुभव करते हैंउनका हम परिहार करते हैं अथवा उनके प्रति हम दया प्रदर्शित करते है लज्जा का हेतु यह है कि वे भिक्षु जीवन को स्वीकार करके भी सूक्ष्म जीवों के प्रति दयालु नहीं है। भिक्षु के रूप में हमारी और उनकी समान कोटि है, इसीलिए अहिंसा के प्रति उनकी उदासीनता को देखकर हमें लज्जा का अनुभव होता है ।
बीओ उद्देसो दूसरा उद्देशक
२१. से भिव परक्कमेज्ज वा, चिट्ठेज्ज वा पिसीएज्ज वा तुयटेज्ज वा, सुसानंसि वा सुन्नागारंसि वा हुरत्था वा कहिचि विहरमाणं तं भिक्खु उवसंकमित्त असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वा वा सत्ताई समारम्भ समुद्दिस्त कीयं पामिवं अच्छे
गिरिगुहंसि वा, रुक्खमूलंसि वा कुंभारायतणंसि वा, गाहावती ब्रूया आउसंतो समणा ! अहं खलु तब अट्ठाए पहिं वा कंबलं वा पायदुखणं वा पाणाई भूयाई जीवाई अणिसदृढं अभिडं आहट्ट चेतेमि, आवसहं या समुसिणोमि से भुंजह वसह आउसंतो समणा !
अहिंसा के आचरण का विशिष्ट हेतु है-अभय । डरा हुआ व्यक्ति अहिंसा का आचरण नहीं कर सकता। जो सर्वात्मना अभय होता है वही दंडभीर होता है। अभय और दंडभीर इन दोनों पदों में कोई । — विरोध नहीं है। जो जीवों के वध से डरता है वही दंडभीर होता है वैसा व्यक्ति न जीवों से डरता है और न जीवों को डराता है, । इसलिए वह अभय होता है। जो अभय होता है, वही दंड-समारंभ से विरत होता है।
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सं० भिक्षुः पराक्रमेत वा तिष्ठेद या निषीदेद् वा शयीत वा श्मसाने वा शून्यागारे वा गिरिगुहायां वा रुक्षमूले वा कुम्भकारायतने वा 'हुरस्था" वा कुत्रचिद् विहरन्तं तं भिक्षु उपसंक्रम्य गृहपतिः ब्रूयात् — आयुष्मन् श्रमण ! अहं खलु तवार्थ अशनं वा, पानं वा, खाद्यं वा स्वाद्यं वा, वस्त्रं वा, प्रतिग्रहं वा, कम्बलं वा, पादप्रोञ्छनं वा प्राणान् भूतान् जीवान् सत्त्वान् समारभ्य समुद्दिश्य क्रीतं प्रामित्यं आच्छेद्यं अनिसृष्टं अभिहृतं आहृत्य ददामि आवसथं वा समुच्छृणोमि तत् भुङ्क्ष्व वस आयुष्मन् श्रमण !
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१. आचारांग चूणि, पृष्ठ २५९ लज्जामोति वा परिहरा भवति पो ते संसग्गी करेमो, अहवा जइ सासणपडिणीया चरगा अवि बहूहि असम्भावुभावणाहि
मोति वा
भिक्षु कहीं जा रहा है, मान, शून्यगृह, गिरी-गुफा, वृक्ष के नीचे या कुम्हार के आयतन में खड़ा, बैठा था लेटा हुआ है अथवा ( गांव से) बाहर कहीं भी विहार कर रहा है । उस समय कोई गृहपति उसके पास आकर बोले- आयुष्मन् श्रमण ! मैं प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का समारम्भ कर तुम्हारे लिए अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादप्रोंछन बनाता हूं
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जाव विहरति निष्हगा महाडंदा म तहा तेसिजमोति
वा दयामोत्ति वा एगट्ठा ।
२. देशीयशब्दः ।
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