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आचारांगभाष्यम् २. धुवं चेयं जाणेज्जा-असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा, कंबलं वा, पायछणं वा ल भिय
णो लभिय, भुजिय णो भुंजिय, पंथं विउत्ता विउकम्म विभत्तं धम्मं झोसेमाणे समेमाणे पलेमाणे, पाएज्ज वा, णिमंतेज्ज वा, कुज्जा वेयावडियं-परं अणाढायमाणे त्ति बेमि । सं०-ध्रुवं चैतत् जानीयात्-अशनं वा, पानं वा, खाद्यं वा, स्वाद्यं वा, वस्त्रं वा, प्रतिग्रहं वा, कंबलं वा, पादप्रोञ्छनं वा लब्ध्वा नो लब्ध्वा, भुक्त्वा नो भुक्त्वा, पन्थानं विवर्त्य व्युत्क्रम्य, विभक्तं धर्म जुषन् समायन् पर्यायन् , प्रदद्यात् वा, निमंत्रयेत् वा, कुर्यात् वैयापृत्यं परं अनाद्रियमाणः इति ब्रवीमि । असमनुज्ञ भिक्षु मुनि से कहे-'तुम निरन्तर ध्यान रखो-हमारे मठ में प्रतिदिन अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल या पादप्रोंछन उपलब्ध है। तुम्हें ये प्राप्त हों या न हों, तुम भोजन कर चुके हो या न कर चुके हो, मार्ग सीधा हो या टेढ़ा हो, तुम अपने (हम से भिन्न) धर्म का पालन करते हुए, वहां आओ और जाओ।' इस प्रकार असमनुज्ञ भिक्षुओं के अनुरोध को मानकर मुनि के वहां जाने पर वह अशन आदि दे, निमंत्रित करे और मुनि के कार्यों में व्याप्त हो, तो उसे कुछ भी आदर न दे-उसकी उपेक्षा कर दे, ऐसा मैं कहता हूं।
भाष्यम् २-असमनुज्ञाः मुनि वदन्ति-मुने ! ध्रुव- असमनुज्ञ (अन्यतीथिक) भिक्षु मुनि से कहते हैं-मुने ! तुम मिति नित्यं भवान् जानीयात्-अस्माकमिह अशनादि निरंतर यह ध्यान रखो, हमारे यहां अशन आदि उपलब्ध होता है। उपलब्धमस्ति । अन्यत्र भवान् लब्ध्वा अथवा अलब्ध्वा , अन्यत्र तुम्हें यह उपलब्ध हो अथवा न हो, तुम भोजन कर चुके हो अथवा भक्त्वा अथवा अभुक्त्वा इहागच्छतु । अस्माकं विहारा- न कर चुके हो, यहां आओ। हमारा आवास-स्थल-मठ मार्ग से कुछ वसथः पथः किञ्चिद् दूरं वर्तते, अत: ऋजू मागे दूर है। इसलिए सीधे पथ को छोड़कर, कुछ कदम चलकर तुम त्यक्त्वा कतिचित पदान् व्यतिक्रम्य भवान् आगच्छतु। आ जाओ। तुम्हारा धर्म हमारे से भिन्न है, परन्तु इसमें कोई बाधा नहीं भवतः धर्मो विभक्तोऽस्ति, नास्ति तत्र कश्चिद् बाधः। है। तुम अपने धर्म का पालन करते हए हमारे आवास-स्थल पर भवान आत्मीयं धर्म सेवमानः अस्माकं विहारावसथ आओ-जाओ। इस प्रकार कहकर वह अन्यतीर्थिक भिक्षु अशन आदि आगच्छन् गच्छन् विहरतु । एवं स अन्यतीथिकः दे अथवा उसके लिए निमंत्रित करे अथवा कार्यों में व्याप्त हो तो अशनादि प्रदद्यात वा, तदर्थं निमन्त्रयेत् वा, कुर्याद् वा उसको कुछ भी आदर न देते हुए उसकी उपेक्षा कर दे । उस असमनुज्ञ वैयापृत्यम् । परं अनाद्रियमाणः तद् वर्जयेत्-तस्य भिक्षु से कुछ न ले, उसके साथ न रहे और न उससे परिचय करे। असमनुज्ञस्य तद् न ग्रहीतव्यं, न तेन संवस्तव्यं, न च तस्य संस्तवः कार्यः । समनुज्ञ कहलाता है। निसीहज्झयणं (१५३७६-९७)
इम दिष्ट-लिंग सरीषा भणी रे, में अन्यतीथिक, गृहस्थ और पार्श्वस्थ आदि को
न देणो असणादिक आहार । अशन, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद-प्रोंछन देने का बले आदर सनमान देणो नहीं प्रायश्चित्त बतलाया गया है।
एतो अकल्पनीक अवधार ।। (घ) आचारांग की जोड़, ढाल ६६ : (१-१२)
गोतमादिक केसी भणी रे दीयो आदर सनमान । समनोज्ञ तथा असमनोज्ञ भणी असणादिक देणो नाहि ।
पवालादिक व्यावच करी एतो कल्पनीक पहिछान ।। व्यावच तिणरी करणी नहीं, एम को सूत्र मांहि ॥
विप्रीत दिष्ट-लिंग ना धणी रे, दृष्टि-लिंग करि सरिषो ते समनोज्ञ कहिवाय ।
तिण नै न देणो आदर निसीह ।
अकल्पनीक इण कारण रे एम को धर्मसीह ॥ पिण भोजनादि करि नहीं सरीषौ, एम कह्यो वृत्ति मांहि ॥ 'धर्मसी' थयो गुजरात में रे ते दरियापुरी कहिवाय ।
लिगकरी सरीसो नहीं रे, दिष्टकरी न सरीस । तिण विसेषपणे अर्थ षोलियो
ते पाषण्डी साक्यादिक जाणज्यो, असमनोज्ञ तिणने कहीस ॥ ते तो सांभलज्यो चित्त ल्याय॥
ए समनोज्ञ असमनोज्ञ भणी रे, न देणो असणादिक आहार। लिंग करी सरीषो हुवै पिण सरधा करि जूवो जाण ।
वस्त्र पात्र कांबलो पायपुंछणो रजोहरणो धार ॥ एहवा भेषधारी जमाली जिसा,
असणाविक नहीं आमन्त्रणो रे, न करणी व्यावच जाण । ते तो लिंग समनोज्ञ पिछाण ॥
अतही आदर देतो थकोरे, एम को जगमाण ॥ दिष्टकरी सरीषो हुवै पिण लिंग सरीषो न होय ।
अति ही आदर देतो थको, न करणी वेयावच जाण । ते अमड सिन्यासी सारसा ते दिष्ट समनोज जोय ॥ अधिकार समापित कारण कह्यो पाठ त्ति बेमि पिछाण ॥
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