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प्रस्तुतागमे भगवतो विशेषणमस्ति आशुप्रज्ञः सर्वज्ञ इति विशेषण मस्मिन्नोपलभ्यते । सूत्रकृतांगे आशुप्रज्ञः', भूतिप्रज्ञः २, महाप्रज्ञ' इति विशेषणानि दृश्यन्ते, किन्तु सर्वज्ञ इति विशेषणं नैव दृश्यते सर्वज्ञवादः जनानां मुख्य वादोऽस्ति । तस्य स्थापना उत्तरकाले जातेति संभाव्यते । सूत्रकृतांगे 'केवली' पदस्य प्रयोगो दृश्यते ।" तत्र अनन्तज्ञानी अनन्तदर्शी' अनन्तचक्षुः " एतान्यपि पदानि लभ्यन्ते । एतेशयते सर्वज्ञत्वस्य प्रकल्पः जैनागमे प्राचीनोस्ति, तस्य व्यवस्थितो बाद उत्तरकाले समजायत ।
जनानां आधुनिकयां ज्ञानमीमांसायां अवधिमनः पर्यव केवलज्ञानानि अतीन्द्रियाणि वर्तन्ते 'प्रज्ञ' इति पदं अतीन्द्रियज्ञानं द्योतयति । वर्तमानज्ञानमीमांसायां अस्य नास्ति कापि चर्चा अत एतत् कल्पयितुं शक्यं, । 'आशुश' सर्वज्ञस्य पूर्वावस्था, सर्वज्ञस्तस्य उत्तरकालीनों विकासः । नवमाध्ययने 'छस्थ' इति पदस्य प्रयोगो दृश्यते ।" द्वादशगुणस्वानवर्ती वीतरागोपि उद्मस्वो वर्तते । उग्रस्थावस्थाया निवर्तनं त्रयोदशे गुणस्थाने जायते, अतः संभाव्यते आचारांगे सर्वज्ञत्वाभ्युपगम स्पष्ट स्वीकृतोस्ति । तस्य व्याख्याविस्तरः ज्ञानमीमांसा व्यवस्थायां सज्जातः ।
प्रस्तुताध्ययने सचेलाचेलयोरस्ति समन्वयः साधितः । मुनयश्चतुविधा भवन्ति त्रिवस्त्रधारिणः, — द्विवस्त्र धारिणः एकवस्त्रधारिणः अचेलाश्च । एते सर्वेपि जिनाज्ञायां वर्तन्ते । अत्र समत्वमनुशीलनीयम् । अयं सर्वसंग्राही दृष्टिकोण: समन्वयस्य बीजमिव आभाति ।
अस्मिन् अध्ययने समाधिमरणस्य व्यवस्थिता प्रक्रिया निदर्शिता अस्ति । जेनसाधनापद्धतेरेषा विलक्षणा भावना वर्तते । इदानीमपि अनेके चिन्तका एनां पद्धतिमभि लपन्तीति स्पष्टं फलितं भवति यत् भगवान् महावीरः यथा जीवनकलायाः मर्मज्ञस्तथा समाधिमरणकलाया अपि मर्मज्ञ आसीत् ।
प्रतिपादकमिदमध्ययनं
अत्यन्तगंभीर विषयाणां समुद्रवद् अस्यापमनुभूयते ।
१. अंगसुत्ताणि १, सूयगडो, १।५।२; १।६।७, २५; १२१४१४,
२२; २।५।१; २६।१८ ।
२. वही, १।६।६ ।
३. वही, १।११।१३,३८ ।
४. वही, १।११३८ ।
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आचारांगभाष्यम्
प्रस्तुत आगम में भगवान् महावीर का विशेषण है - आज्ञ' । 'सर्वज्ञ' यह विशेषण इसमें उपलब्ध नहीं होता । सूत्रकृतांग आगम में आशुप्रज्ञ, भूतिप्रज्ञ, महाप्रज्ञ आदि विशेष मिलते हैं, किन्तु 'सर्वज्ञ' यह विशेषण वहां प्राप्त नहीं है। वेगों का मुख्य याद है 'सर्वजवाद' उसकी स्थापना उत्तरकाल में हुई, ऐसी संभावना की जा सकती है । सूत्रकृतांग आगम में 'केवली' पद का प्रयोग दृग्गोचर होता है। वहां अनन्तज्ञानी अनन्तदर्शी, अनन्तचक्षु ये पद भी प्राप्त होते हैं। इनसे यह ज्ञात होता है कि जैनागमों में सर्वस्व की अवधारणा प्राचीन है, पर व्यवस्थित वाद के रूप में उसकी स्थापना उत्तरकाल में हुई है ।
जैनों की आधुनिक ज्ञान - मीमांसा में अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान अतीन्द्रिय ज्ञान हैं। ''यह पद अतीन्द्रियज्ञान का द्योतक है। आधुनिक ज्ञान-मीमांसा में इसकी कोई चर्चा नहीं है। इसलिए यह कल्पना की जा सकती है कि 'आशुप्रज्ञ' यह सर्वश की पूर्व अवस्था है और 'सर्वज्ञ' यह उसका उत्तरकालीन विकास है। नौवें अध्ययन में 'अस्य' शब्द का प्रयोग देखा जाता है। बारहवें गुणस्थानवर्ती वीतराग भी उपस्थ होते हैं। अस्य अवस्था का निवर्तन तेरहवें गुणस्थान में होता है, इसलिए संभव है कि आचारांग में सर्वशत्व की अवधारणा स्पष्ट रूप से स्वीकृत है। उसकी व्याख्या का विस्तार ज्ञानमीमांसा की व्यवस्था के समय हुआ है ।
प्रस्तुत अध्ययन में सचेल और अचेल का समन्वय किया गया है। मुनि चार प्रकार के होते हैं-तीन वस्त्र धारक, दो वस्त्रधारक, एक वस्त्र धारक तथा अचेल --अवस्त्र । ये सभी मुनि जिनेश्वर देव की आज्ञा में हैं। इन सबको समान दृष्टि से देखना चाहिए। यह सर्वसंग्राही दृष्टिकोण समन्वय का बीज-सा प्रतीत होता है।
इस अध्ययन में समाधिमरण की व्यवस्थित प्रक्रिया निर्दिष्ट है । यह जैन साधना-पद्धति की विलक्षण भावना है। आज भी अनेक विचारक समाधिमरण की इस पद्धति को चाहते है, इससे यह स्पष्ट प्रतिफलित होता है कि भगवान् महावीर जीवन-कला के जैसे मश थे, वैसे ही समाधिमरण की कला के भी मर्मज्ञ थे ।
इस प्रकार अत्यंत गंभीर विषयों का प्रतिपादक यह अध्ययन समुद्र की भांति अथाह है, ऐसा अनुभव होता है।
५. वही, १।६।३ ।
६. वही, १।६।३ ।
७. वही, १।६।६, २५ । ८. आयारो, ९।४।१५ ।
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