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अ० ६. धुत, उ०५. सूत्र १११-११३
३४७ यथा संग्रामशीर्षे विजयी योद्धा इष्टं प्राप्नोति तथैव इष्ट लक्ष्य को पा लेता है, वैसे ही शरीर-त्याग करने के क्षण में शरीरत्यागक्षणे विजयी साधकः शान्तिमधिगच्छति। विजयी साधक शांति को प्राप्त हो जाता है। जो मुनि परीषहों स मुनिः पारंगमो भवति यः परीषहोपसर्गः हन्यमानोऽपि और उपसर्गों से प्रहत होता हुआ भी संयम की आराधना से न खिन्न न संयमाराधनतः खिद्यते निवर्तते च। स होता है और न उससे निवृत्त होता है, वही मुनि पारगामी होता है। फलकावतष्टी भवति यथा उभयत: अपकृष्यमाणं वह फलकावतष्टी होता है, जैसे दोनों ओर से छिला जाता हुआ काष्ठं फलकं भवति तथा स बाह्यन आभ्यन्तरेण वा काष्ठ 'फलक' होता है, वैसे ही वह मुनि बाह्य अथवा आंतरिक तपसा शरीरं अपकर्षति । स काले उपनीते सति कालं- तप के द्वारा शरीर को कृश कर देता है। वह मुनि मृत्यु का समय पंडितमरणं काङ्क्षत-यदा मृत्योः लक्षणानि प्रकटी- समीप आने पर पंडितमरण की आकांक्षा करे अर्थात् जब मृत्यु के भवन्ति तदा अनशनं कृत्वा पण्डितमरणस्य काङ्क्षां लक्षण प्रकट हो जाते हैं तब वह अनशन कर पंडितमरण की आकांक्षा कुर्यात्, शरीरभेदपर्यन्तं मध्यस्थभावेन तिष्ठेत, न करे, शरीर का वियोग होने तक मध्यस्थभाव में रहे। वह न जीने च जीवनस्य मरणस्य वा आशंसां कुर्यात् ।'
की आशंसा करे और न मरने की आशंसा करे।
१. मृत्यु सचमुच संग्राम है। संग्राम में पराजित होने वाला वैभव से विपन्न और विजयी होने वाला वैभव से सम्पन्न होता है। वैसे ही मृत्यु-काल में आशंसा और भय से पराजित होने वाला साधना से च्युत हो जाता है तथा अनासक्त और अभय रहने वाला साधना के शिखर पर पहुंच जाता है। इसीलिए आगमकार का निर्देश है कि
मृत्यु के उपस्थित होने पर मूढता उत्पन्न नहीं होनी चाहिए। मूढता से बचने की तैयारी जीवन के अंतिम क्षण में नहीं होती। वह पहले से ही करनी होती है। उसकी मुख्य प्रवृत्ति है-शरीर और कषाय का कृशीकरण । देखें-सूत्रकृतांग १७।३० ।
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