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अ० ६.धुत, उ० ३. सूत्र ६१-६५
३२५ भाष्यम् ६३-अचेल: मुनिः लाघवं आगच्छति । अचेल मुनि लाघव को प्राप्त होता है। लघु का भाव लाघव लघोर्भाव: लाघवम् । तद् द्विधा-द्रव्यतः भावतश्च । है। बह दो प्रकार का है-द्रव्यलाधव और भावलाघव । उपकरणों उपकरणलाघवं द्रव्यलाघवं, अनुद्धतत्वं भावलाघवम्। की लघुता द्रव्यलाघव है और उइंडता का परिहार भावलाघव है। अत्र उपकरणलाघवं अधिकृतम् । 'आगममाणे' इति यहां उपकरणलाघव का अधिकार है । 'आगममाणे' का अर्थ है--- आगच्छन् आसेवमान इति यावत् ।'
आता हुआ । तात्पर्य में इसका अर्थ है-आसेवन करता हुआ। . चूणी उपकरणलाघवभावलाघवयोश्च अन्योन्यत्वं
चूणि में उपकरणलाघव और भावलाधव की परस्परता प्रदर्शित प्रदर्शितम्---
उवगरणलाधवाओ भावलाघवं, भावलाधवाओ य उवगरण- उपकरणलाघव से भावलाघव और भावलाघव से उपकरण लाघव लाघवं, अतो अण्णोणं, अविक्खित्ता अविरोहो, एवं भावलाघ- प्राप्त होता है । इसलिए ये दोनों एक दूसरे का परिहार नहीं करते। वाओ कम्मलाघवं कम्मलाघवाओ पसत्थं मावलाघवं अतो दोनों में अविरोध है । इसी प्रकार भावलाघव से कर्मलाधव प्राप्त अविरोहो, ततो सिद्हें लापवितं ।'
होता है और कर्मलाघव से प्रशस्त भावलाघव होता है । इसलिए
दोनों में अविरोध है । यह लाधव की अनुशासना है। ६४. तवे से अभिसमण्णागए भवति ।
सं०-तपः तस्य अभिसमन्वागतं भवति । अचेल मुनि के तप सम्यग् उपलब्ध होता है।
भाष्यम् ६४-तस्य अचेलस्य मुनेः अचेलत्वं तपः उस अचेल मुनि के अचेलत्व-तप अभिसमन्वागत-सम्यक रूप अभिसमन्वागतं-सम्यग उपलब्धं भवति । तप इति में उपलब्ध होता है। तप का तात्पर्य है-उपकरणों की अल्पता उपकरणानां अवमौदर्य कायक्लेशो वा ।
अथवा कायक्लेश। ६५. जहेयं भगवता पवेदितं तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सम्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया ।
सं.-यथैतत् भगवता प्रवेदितं तदेव अभिसमेत्य सर्वतः सर्वात्मतया समत्वमेव समभिजानीयात् ।। भगवान् ने जमे अचेलत्व का प्रतिपादन किया है, मुनि उसे उसी रूप में जान कर, सब प्रकार से, सर्वात्मना समत्व का ही सेवन करे।
भाष्यम् ६५-इदं अचेलत्वं भगवता यथा प्रवेदितं भगवान् ने इस अचेलत्व का जैसा प्रतिपादन किया है उसके तदेव अभिसमेत्य-तस्य फलानि सम्यग् विज्ञाय, सर्वतः फलों को सम्यक् प्रकार से जानकर मुनि सभी क्षेत्र और सभी काल में
-सर्वस्मिन् क्षेत्रे काले च, सर्वात्मना-सत्यभावेन न तु सर्वात्मना-यथार्थभाव से अर्थात् बिना किसी प्रवंचना, भय और कैतवेन, भयेन, मायया वा समत्वमेव समभिजानीयात् माया से समत्व का ही अनुपालन करे- न आत्मोत्कर्ष का अनुभव करे १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २१८-२१९ : तं आगमेमाणे आसेव
___अहवा समभावो सम्मत्तमिति, जेवि एते अचेलगत्तं" माणे, तं अप्पाणं परिसयमाणे ।
ण भाति ते वि अचेलगत्तं फासंति, जं भणितं-ण अव२. वही, पृष्ठ २१९ ।
मन्नति, भणियं वा 'जो वि दुवत्थ तिवत्यो' गाथा ॥ ३. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २१९ : अभिमुहं सं अणु आगते जिनकप्पिओ पुण जति एक्केणं संथरति एक्कं चेव धारेंति, - अभिसमण्णागते, जं भणितं-सम्म उवलद्धे।
परेण वा तिण्हं गच्छवासी, गच्छणिग्गया पुण तिण्णि वा (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २२२ : तपः कायक्लेशरूपतया दुण्णि वा एक्कं वा धारेंति अचेलभावा, सम्वेऽवि ते भगवतो बाह्यमभिसमन्वागतं भवति-सम्यग् आभिमुख्येन
आणाए उवट्ठिता - आणाए आराधगा भवंति, एवं सेसाणं सोढं भवति ।
वत्थाणं वा, तहा सचेलाणं अचेलाणं च आराहणं प्रति ४. चूर्णी वृत्तौ च 'सम्मत्तं' (सम्यक्त्वं) इति मूलपाठः व्या
सम्मत्तं समभिजाणमाणे आराधओ भवतीति वक्कसेसं । ख्यातः, 'समत्तं' (समत्वं) इति तत्र वैकल्पिकः पाठः-- (आचारांग चूणि, पृष्ठ २१९-२२०) पसत्यो-सोमणो एगो संगतो वा भावो संमत्तं ।
वृत्तिकारेण 'सर्वतः' प्रभृति पाठस्य वैकल्पिकः 'प्रशस्तः शोभनश्चव, एकः संगत एवं वा ।
अर्थोपि कृतोस्ति-यदिवा तदेव लाघवमभिसमेत्य सर्वतो इत्येतैरुपसृष्टस्तु, भावः सम्यक्त्वमुच्यते ॥'
द्रव्यादिना सर्वात्मना नामादिना सम्यक्त्वमेव सम्यगभिजा
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