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आचारांगभाष्यम् ___ भाष्यम् ६० --पूर्वसूत्रेषु (४०-५१) अचेलकपरिवासः पूर्ववर्ती बारह सूत्रों (४० से ५१) में अचेलक परिवास का प्रतिपादितः । इदानीं पुनरपि तस्य गुणान् प्रतिपादयति प्रतिपादन किया गया है। अब पुनः सूत्रकार अचेलक अवस्था के गुणों सूत्रकारः --यः भिक्षुः अचेलः पर्युषितः तस्य वस्त्रे का निरूपण कर रहे हैं जो मुनि निर्वस्त्र रहता है, उसके मन में परिजीणे नववस्त्रस्य, सूत्रस्य, सूच्या वा याचनायाः, वस्त्र के फट जाने पर नए वस्त्र का, धागा या सूई की याचना का, सन्धानस्य' सीवनस्य, तस्य उत्कर्षणस्य अपकर्षणस्य' वस्त्र को सांधने और सीने का तथा छोटे वस्त्र को जोड़ कर बड़ा वा परिधानस्य प्रावरणस्य वा विकल्पाः न बनाने का, बड़े वस्त्र को काट कर छोटा बनाने का, पहनने और सजायन्ते ।
ओढने का-ये सारे विकल्प नहीं उठते । यावती अपेक्षा तावान् विकल्पः संजायते। यथा जितनी अपेक्षा होती है, उतना विकल्प होता है। जैसेयथा अपेक्षा स्वल्पा भवति तथा तथा विकल्पा अपि जैसे अपेक्षा कम होती जाती है, वैसे-वैसे विकल्प भी तनु-अल्प होते तनवो भवन्ति । विकल्पः पदार्थस्य अपेक्षाजनितो जाते हैं। विकल्प पदार्थ की अपेक्षा से उत्पन्न होता है, यही इसका भवतीति हृदयम् ।
हार्द है। ६१. अदुवा तत्थ परक्कमंतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति, सोयफासा फुसंति, तेउफासा फुसंति, दंसमसगफासा
फुसंति । सं०-अथवा तत्र पराक्रममाणं भूयः अचेलं तृणस्पर्शाः स्पृशन्ति, शीतस्पर्शाः स्पृशन्ति, तेजस्स्पर्शाः स्पृशन्ति, दंशमशकस्पर्शाः स्पृशन्ति । अथवा अचेल-अवस्था में रहते हुए उसे बार-बार तृण, सर्दी, गर्मी और दंशमशक के स्पर्श पीडित करते हैं।
भाष्यम् ६१-अथवा तस्यां अचेलावस्थायां पराक्रम- अथवा उस अचेल-अवस्था में रहते हुए अचेल मुनि को कुश माणं अचेल मुनि भूयः---पुनः पुनः कुशादितृणशय्यायां आदि की तृण-शय्या में सोने के कारण बार-बार तृण-स्पर्श पीडित तृणस्पर्शाः स्पृशन्ति । शिशिरे शीतस्पर्शाः स्पृशन्ति। करते हैं । शीतकाल में सर्दी का कष्ट सताता है। ग्रीष्म ऋतु तथा ग्रीष्मे शरदि च तेजःस्पर्शाः५ स्पृशन्ति, दंशमशकस्पर्शा शरद् ऋतु में उष्ण स्पर्श पीडित करता है और दंशमशक के स्पर्श भी अपि स्पृशन्ति ।
बाधित करते हैं। ६२. एगबरे अण्णयरे विरूवरूवे फासे अहियासेति अचेले। सं० एकतरान अन्यतरान् विरूपरूपान् स्पर्शान् अधिसहते अचेलः । अचेल मुनि एकजातीय, मिन्नजातीय-नाना प्रकार के स्पर्शो को सहन करता है।
भाष्यम् ६२-पूर्वसूत्रोक्तपरीषहेषु एकतरान्, अन्य- अचेल मुनि पूर्वसूत्रों में निर्दिष्ट परीषहों में से एकजातीय तथा तरान् --भिन्नजातीयान् विरूपरूपान् इति नानारूपान् भिन्नजातीय नाना प्रकार के स्पर्शो-परीषहों को सहन करता है। स्पर्शान् अधिसहते अचेलो मुनिः । द्रष्टव्यम्---६।४४ सूत्रस्य भाष्यम् ।
देखें-६।४४ सूत्र का भाष्य । ६३. लाघवं आगममाणे । सं० लाघवं आगच्छन् । अचेल मुनि लाघव को प्राप्त होता है ।
१. आचारांग चूणि, पृष्ठ २१८ : संधणा दोण्हालीणं अहवा
छिण्णस्स वा फालियस्स वा। २. वही, पृष्ठ २१८ : उक्कसणं णाम होणपमाणं गाउं पासेहि
दिग्घत्तेण वा वड्ढति, तस्सेवऽवकरिसणं वा । ३. वही, पृष्ठ २१८ : उरि पाउरणं ।
४. वही, पृष्ठ २१८ : वत्तव्वयं बहुवयणं तं जाणवेइ, तिव्व___ मंदमज्झिमाणि । ५. वही, पृष्ठ २१८ : तेजो आविच्चो, तेजो मंतो, तेजो तेजस्स संफासा तेउफासा, जं भणियं-उण्हफासा, गिम्हे सरते य।
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