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आचारांगभाष्यम
इह मानवानां मया व्याहृतः ।'
लिए निरुपित किया है।
५०. एत्थोवरए तं झोसमाणे ।
सं. अत्रोपरतः तं जुषन् । विषय से उपरत साधक उत्तरवाद का आसेवन करता है।
भाष्यम् ५०-अत्र उपरतः-कामविषयेभ्यः विरतः यहां काम और विषयों से विरत साधक उस यथोद्दिष्टधर्मतं यथोद्दिष्टधर्म स्पृशति, न च विषयासक्तः सुविधा- उत्तरवाद का आसेवन करता है । विषयों में आसक्त अथवा सुविधावादी वादी वा तादृशं उत्तरं धर्म आराधयितुं शक्नोति । साधक उस प्रकार के उत्कृष्ट धर्म का आराधन नहीं कर सकता।
५१. आयाणिज्ज परिण्णाय, परियाएण विगिचइ।
सं०-आदानीयं परिज्ञाय पर्यायेण विनक्ति । वह मुनि वस्त्र के विषय में भलीभांति जानकर जीवन-पर्यन्त उसका विसर्जन कर देता है।
भाष्यम् ५१–स मुनिः आदानीयं-वस्त्रं परिज्ञाय- वह मुनि आदानीय-वस्त्र के विषय में भलीभांति जान कर सम्यग् ज्ञात्वा पर्यायेण --यावद् मुनित्वपर्यायः तावत् मुनि-पर्याय--जीवन पर्यन्त उसका विसर्जन कर देता है । तत् विनक्ति-पृथक् करोति। ____ आदानीयं कर्म इत्यपि व्याख्यातमस्ति । धुतप्रकरणे 'आदानीय' का अर्थ कर्म भी किया गया है। धुत के प्रकरण कर्मणां विधननमपि नास्ति अप्रासंगिकम् । मुनिपर्यायः में कर्मों का प्रकंपन भी अप्रासंगिक नहीं है। मुनि-पर्याय कर्मों का कर्मापनयनाय सर्वोत्तमोस्ति उपायः ।
अपनयन करने के लिए सर्वोत्तम उपाय है।
५२. इहमेगेसि एगचरिया होति ।
सं०--इहैकेषां एकचर्या भवति । कुछ साधु अकेले रह कर साधना करते हैं।
भाष्यम् ५२-भगवता महावीरेण द्विविधा मनिचर्या भगवान् महावीर ने दो प्रकार की मुनिचर्या का प्रतिपादन प्रज्ञप्ता-गणचर्या एकाकिचर्या च । अगीतार्थाय गणचर्या किया है-गणचर्या और एकाकीचर्या । अगीतार्थ मुनि के लिए गणचर्या एव सम्मतास्ति । गीतार्थाः पुनः बहुश्रुतगुरोराज्ञापूर्विकां ही सम्मत है । गीतार्थ मुनि बहुश्रुत गुरु की आज्ञा से एकाकीचर्या भी एकाकिचर्यामपि प्रतिपद्यन्ते।
स्वीकार करते हैं।
१. मुनि-धर्म को स्वीकार कर पुनः गृहवास में चले जाने वाले व्यक्ति को आगमनधर्मा कहा गया है। पुनः गृहवास में जाने का कारण है-परीषह सहने की अक्षमता।
काम आदि अनुकूल परीषहों, आक्रोश-प्रहार आदि प्रतिकूल परीषहों तथा अचेल, भिक्षा जैसे लज्जाजनक परीषहों को सहन करने वाला पुनः गृहवास में नहीं जाता। वह अनागमनधर्मा होता है।
भगवान् ने अहिंसा और परीषह-सहन-इन दो लक्षण वाले धर्म का निरूपण किया है। इस धर्म को जानने वाला ही परीषहों के आने पर अविचलित रह सकता है और अविचलित रहने वाला ही जीवन के
अन्तिम श्वास तक मुनि-धर्म का पालन कर सकता है।
___ सब प्रकार के परीषहों को सहना, भयंकर परीषहों के उपस्थित होने पर भी मुनि-धर्म को न छोडना, यह उत्तरवाद है। २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २१५: आदिज्जति आयत्ते वा
आदाणीयं, जं भणितं-संसारबीजं पलियं मणिय तं
जहा-प्रलीयते भवं येन, आदानमेव पलित। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २२० : आबीयत इत्यावानीयं
३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २१५ : परियाओ णाम सामण्णपरियाओ
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