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अ० ६. धुत, उ०२. सूत्र ४५-४६ ४७. एते भो! णगिणा वृत्ता, जे लोगंसि अणागमणधम्मिणो। सं०-एते भो ! नग्नाः उक्ताः ये लोके अनागमनर्मिणः । धर्म-क्षेत्र में उन्हें नग्न कहा गया है, जो दीक्षित होकर पुनः गृहवास में नहीं आते हैं।
भाष्यम् ४७-ये लोके अनागमनमिणो' भवन्ति, न लोक में जो अनागमनधर्मी होते हैं, विस्रोतसिका-चैतसिक तु विस्रोतसिकयाभिभूताः पुनर्गहवासं जिगमिषन्ति । चंचलता से अभिभूत होकर पुनः गृहवास में जाना नहीं चाहते । हे शिष्य ! एते एव वस्तुतः नग्नाः उक्ताः । न केवलं हे शिष्य ! वे ही वस्तुतः नग्न कहे गए हैं। केवल अचेलता के कारण अचेलत्वमात्रेण ते नग्ना: उच्यन्ते ।
वे नग्न नहीं कहे जाते। एतादशा नग्ना एव एकान्तवासे वसन्ति, कामादि- इस प्रकार के नग्न पुरुष ही एकान्तवास में रहते हैं, काम संस्काराणामुन्मूलनं कर्तुं शक्नुवंति, नाभिनवान आदि के संस्कारों का उन्मूलन कर सकते हैं, और नए संस्कारों को संस्कारान् जनयन्ति । ये पुनर्गहं गन्तुमिच्छवो भवन्ति, पैदा नहीं करते । जो पुनः गृहवास में जाने के इच्छुक हैं, उनके संस्कार न तेषां संस्काराः क्षीणा जायन्ते, अतो मया यावज्जीवनं क्षीण नहीं होते, इसलिए मैंने जीवन पर्यन्त मुनित्व की आज्ञा दी है। मुनित्वं आज्ञप्तम् ।
(अर्थात् मुनि जीवन सावधिक नहीं होता।)
४८. आणाए मामगं धम्म । सं०-आज्ञाय मामकं धर्मम् । वे मेरे धर्म को जान कर-मेरी माज्ञा को स्वीकार कर आजीवन मुनि-धर्म का पालन करते हैं।
भाष्यम् ४८-मया मुनिधर्मस्यानुपालनं यावज्जीवनं मैंने आजीवन मुनि-धर्म के पालन का निर्देश दिया है। निर्दिष्टं, तेन एतं मामकं धर्म आज्ञाय एते उत्पन्नेष्वपि इसलिए मेरे इस धर्म को जान कर ये मुनि परीषहों के उत्पन्न होने पर परीषहेषु न विचलिता भवेयुः, किन्तु यावज्जीवनं भी विचलित न हों, किन्तु यावज्जीवन उस मुनि-धर्म का पालन करें। तमनुपालयेयुः ।
४६. एस उत्तरवादे, इह माणवाणं वियाहिते।
सं०-एष उत्तरवादः इह मानवानां व्याहृतः । यह उत्तरवाद मनुष्यों के लिए निरूपित किया गया है ।
भाष्यम् ४९-एष अचेलपरिवासात्मको धर्मः यह अचेल अवस्था में रहने का धर्म उत्तरवाद है-उत्कृष्ट उत्तरवादो विद्यते, न तु साधारणोऽयं वादः। अचेलत्वे सिद्धांत है, यह साधारणवाद नहीं है । अचेल अवस्था में रहना और परिवसनं शीतादिपरीषहाणां सहनं च उत्कृष्टः उपदेशः शीत आदि परीषहों को सहना, यह उत्कृष्ट उपदेश मैंने मनुष्यों के
१. आचाराग वृत्ति, पत्र २२० : अस्मिन् मनुष्यलोके अनागमनं धर्मों येषां तेऽनागमनधर्माणः, यथाऽरोपितप्रतिज्ञाभारवाहित्वान्न पुनगृहं प्रत्यागमनेप्सवः । २. आप्टे, नान:-Nacked. Uncultivated, uninhabi
ted, desolale. ३. चू धर्मस्य वैकल्पिकोर्थः स्वभावः कृतोस्ति-'अहवा मामगो सहावो, सो य महं सुहस्समावो, एतेण अणुमाणेणं अन्नेवि ते गुणं सुहसमावा, तेण तश्विवक्खं अण्णेसि ण कुज्जा असुहं । (आचारांग चूणि, पृष्ठ २१४)
४. वृत्तिकार ने 'आणाए मामगं धम्म' इस पाठ के दो अर्थ किए हैं१. आज्ञा से मेरे धर्म का सम्यग अनुपालन करे। २. धर्म ही मेरा है, इसलिए मैं तीर्थकर की आज्ञा से उसका सम्यक् पालन करूं। (आचारांग वृत्ति, पत्र २२०)
इस आलापक का 'मेरा धर्म मेरी आज्ञा में है' यह पारम्परिक अर्थ प्रचलित है। 'मामगं धम्म' यह कर्मपद है, इसलिए 'आणाए' का 'आज्ञाय' रूप मान कर इसका अनुवाद किया गया है।
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