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अ० ६. धुत, उ० २. सूत्र ३५-३८ ३६. अपलीयमाणे दढे। सं0-अप्रलीयमानः दृढः । वह अनासक्त और बृढ होता है ।
भाष्यम् ३६–स सुशीलः मुनिः अप्रलीयमानः'- वह सुशील मुनि वस्त्र आदि उपकरणों के प्रति अनासक्त होता वस्त्राद्यपकरणं प्रति अनासक्तो भवति । स दृढश्च है। वह दृढ़ होता है। स्थानांग में कहा है-कोई एक व्यक्ति प्रियधर्मा भवति । उक्तं च स्थानाङ्गे--एकः कश्चित् प्रियधर्मा होता है और कोई एक दृढधर्मा । प्रियधर्मा व्यक्ति धर्म के प्रति रुचि भवति, एकश्च दृढधर्मा। प्रियधर्मा धर्म प्रति रुचि करोति करता है, किन्तु वह उसका निर्वाह नहीं कर सकता। दृढधर्मा व्यक्ति न तस्य निर्वाहं कर्तुं शक्नोति । दृढधर्मा धृत्या संहननेन अपनी धति और संहनन की दृढता से धुरीण बैल की भांति भारच दृढत्वात् धुरीण इव भारवाही भवति ।
वहन करने में सक्षम होता है। ३७. सव्वं गेहिं परिणाय, एस पणए महामुणी । सं०-सर्वां 'गेहि' परिज्ञाय एष प्रणतः महामुनिः । समन कामासक्ति को छोड कर धर्म के प्रति समर्पित होने वाला महामुनि होता है।
भाष्यम् ३७-यः सर्वां 'गेहि -कामासक्ति परिज्ञाय जो समग्र कामासक्ति को छोड़ कर जीवन-यापन करता है, विहरति स एष धर्म वैराग्यं च प्रति प्रणतो भवति, वह धर्म और वैराग्य के प्रति समर्पित होता है। वैसा व्यक्ति महामुनि तादृशो महामुनिर्जायते । चूर्णिकारस्याभिमते स होता है । चूर्णिकार के मतानुसार-वह पुरुष महान् संसार को जानता महान्तं संसारं जानाति, प्रधानो वा मुनिर्भवति । है अथवा वह प्रधान मुनि होता है । ३८. अइअच्च सव्वतो संगं 'ण महं अस्थित्ति इति एगोहमंसि ।' सं०-अतिगत्य सर्वतः संग 'न मम अस्तीति, इति एकोऽहमस्मि ।' वह सब प्रकार से संग का परित्याग कर यह भावना करे-मेरा कोई नहीं है, इसलिए मैं अकेला हूं।
भाष्यम् ३८-कर्मपरित्यागाय एकत्वानुप्रेक्षा अत्यन्त- कर्म परित्याग के लिए 'एकत्व-अनुप्रेक्षा' अत्यन्त उपादेय है । मुपादेयाऽस्ति । संगो नाम रागः। सर्वतः सर्वत्र संग का अर्थ है-राग। सर्वतः का अर्थ है-सर्वत्र, सर्वथा, सर्वथा सर्वकालं वा । सर्वं संगमतीत्य इति अनुप्रेक्षणीयं अथवा सर्वकाल । वह समस्त संगों का परित्याग कर ऐसी अनुप्रेक्षा -न मम कोऽपि अस्ति इति एकोऽहम् । अनेकत्वं करे-मेरा कोई भी नहीं है, इसलिए मैं अकेला हूं।' अनेकत्व संग संगकल्पितमस्ति इति नास्ति तत् सत्यम्, एकत्वञ्च से उत्पन्न होता है, इसलिए वह यथार्थ नहीं है । एकत्व या अकेलापन वास्तविकमिति सत्यस्यानुप्रेक्षया कर्म धुतं भवति । वास्तविक है। इस सत्य की अनुप्रेक्षा से कर्म प्रकंपित होता है। सूत्रकृताने एकत्वानुभवो मोक्षः इति प्रसाधित
सूत्रकृतांग में 'एकत्व का अनुभव मोक्ष है'-यह सिद्ध किया मस्ति
१. आचारांग चूणि, पृष्ठ २१२ : अप परिवर्जने, लोणो
विसयकसायादि। २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २१२ : गंधो गेही कंखत्ति
इति वा एगळं। (ख) देशीशब्दोऽयम् । ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २१२ : पणतो महंत मुणेति संसारं,
पहाणो वा मुणी। ४. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २१२ : संगो णाम रागो,
__ अहवा कम्मस्स संगो। (ख) द्रष्टव्यम्-आयारो, ३।६ ।
५. (क) अंगसुत्ताणि १, सूयगडो १।१०।१२ । (ख) सूत्रकृतांग चूणि, पृष्ठ १८८,१८९ : एकभाव
एकत्वम्, नाहं कस्यचित् ममापि न कश्चिविति'एक्को मे सासओ अप्पा णाणसणसंजुतो। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा॥'
(संस्तारक पौरुषी, गा० ११) एवं वैराग्यं अणुपत्थेज्ज, अथ किमालम्बनं कृत्वा ? 'एतं पमोक्खे ण मुसं ति पास', जं चेव एतं एकत्वं एस चेव पमोक्खो, कारणे कार्योपचारादेष एव मोक्षः भृशं मोक्षो पमोक्खो सत्यश्चायम् ।
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