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अ० ६.धुत, उ० १. सूत्र २१-२५
३०६ मृगापुत्रविषयश्च' अस्ति द्रष्टव्यः ।
तथा मृगापुत्र का विषय द्रष्टव्य है। २४. आयाण भो ! सुस्सूस भो! धूयवादं पवेदहस्सामि । सं० ---आजानीहि भोः ! शुश्रूषस्व भो ! धुतवादं प्रवेदयिष्यामि । मुने ! तुम जानो ! तुम सुनने की इच्छा करो ! मैं धुतवाद का निरूपण करूगा।
भाष्यम् २४ हे मुने! त्वं आजानीहि शुश्रूषस्व अहं हे मुने ! तुम जानो और सुनने की इच्छा करो! मैं धुतवाद धुतवादं प्रवेदयिष्यामि। धुतम्-तपःपद्धतिः। विचि- का निरूपण करूंगा। धुत का अर्थ है-तपस्या की पद्धति । विभिन्न त्राणां कर्मणां निर्जरायै विचित्रा: तपःपद्धतयः सन्ति प्रकार के कर्मों की निर्जरा के लिए विभिन्न प्रकार की तप:-पद्धतियां निर्दिष्टाः। प्रस्तुताध्ययने अनेकेषां धुतानां निरूपण- निर्दिष्ट हैं। प्रस्तुत अध्ययन में अनेक धुतों का निरूपण मस्ति, तेन धुतवादं प्रवेदयिष्यामीति प्रतिजानाति है, इसलिए 'धुतवाद का निरूपण करूंगा'-ऐसी प्रतिज्ञा सूत्रकार सूत्रकारः । पूर्वोक्तानि सूत्राणि धुतवादस्य प्रसङ्गोपस्था- करते है । पूर्वोक्त सूत्र धुतवाद के प्रसंग को उपस्थापित करने वाले पकानि अवगन्तव्यानि।
__ हैं, ऐसा जानना चाहिए । २५. इह खलु अत्तत्ताए तेहि-तेहि कुलेहिं अभिसेएण अभिसंभूता, अभिसंजाता, अभिणिव्वट्टा, अभिसंवड़ा, अभिसंबद्धा
अभिणिक्खंता, अणुपुब्वेण महामुणी । सं०--इह खलु आत्मत्वेन तेषु तेषु कुलेषु अभिषेकेण अभिसम्भूताः, अभिसञ्जाताः, अभिनिर्वृत्ताः, अभिसंवृद्धाः, अभिसंबुद्धाः, अभिनिष्क्रान्ताः अनुपूर्वेण महामुनयः । मनुष्य नाना कुलों में आत्म-भाव से प्रेरित हो शुक्र-शोणित के निषेक से उत्पन्न होते हैं, अर्बुद और पेशी का निर्माण करते हैं, अंग-उपांग के रूप में विकसित होते हैं, जन्म प्राप्त कर बढते हैं, सम्बोधि को प्राप्त होते हैं और संबुद्ध होकर अभिनिष्क्रमण करते हैं। इस क्रम से महामुनि बनते हैं।
भाष्यम् २५–इहेति मनुष्यजन्मलाभे आत्मतया 'इह' का अर्थ है- मनुष्य जन्म का लाभ होने पर, जीव अपने जीवा नानाविधेषु कुलेषु अभिषेकेण अभिसम्भूताः कर्मोदय से प्रेरित होकर नाना कुलों में अभिषेक-शुक्रशोणित के अभिसञ्जाताः अभिनित्ता: अभिसंवृद्धाश्च भवन्ति। निषेक से अभिसंभूत-उत्पन्न होते हैं, अभिसंजात होते हैं, अभिनिवृत्त
होते हैं और अभिसंवृद्ध होते हैं। आत्मत्वं-आत्मनो भाव:-आत्मत्वम् । आत्मन: आत्मा का भाव है आत्मत्व । आत्मत्व के दो अर्थ हैं-आत्मा अस्तित्वं, स्वकृतकर्मविपाको वा। जीवा: स्वकृतकर्म- का अस्तित्व अथवा अपने द्वारा किए कर्मों का विपाक । जीव स्वकृत विपाकेन उत्पद्यन्ते। नास्त्यन्यः कश्चिदीश्वरादिः कर्म के विपाक से उत्पन्न होते हैं। ईश्वर आदि कोई अन्य उनका तेषामुत्पादकः । तेषामस्ति स्वतन्त्र अस्तित्वं, न च ते उत्पादक नहीं है । जीवों का स्वतंत्र अस्तित्व है। वे केवल पांच भूतों भूतधातुसंघातमात्रमेव ।
या धातुओं के संघात मात्र नहीं हैं। अभिषेकः-शुक्रशोणितयोनिषेकः ।
अभिषेक का अर्थ है-शुक्र और शोणित का निषेक । वृत्तौ अभिसम्भूतादीनां क्रमः प्रदर्शितोऽस्ति
वृत्ति में अभिसंभूत आदि का क्रम प्रदर्शित हैसप्ताहं कललं विद्यात्, ततः सप्ताहमर्बुदम् ।
जीव गर्भाधान से एक सप्ताह तक कलल अवस्था में और एक अर्बुदाज्जायते पेशी, पेशितोऽपि घनं भवेत् ॥ सप्ताह तक अर्बुद अवस्था में रहता है । अर्बुद से पेशी उत्पन्न होती है १. उत्तरायणाणि १९७५-८०:
जया मिगस्स आयको, महारणम्मि जायई। तं बितऽम्मापियरो, छंदेणं पुत्त ! पव्वया ।
अच्छंत रुक्खमूलम्मि, को गं ताहे तिगिच्छई ?॥ नवरं पुण सामण्णे, दुक्खं निप्पडिकम्मया ॥
को वा से ओसहं देई ? को वा से पुच्छई सुहं । सो बितऽम्मापियरो, एवमेयं जहाफु।
को से भत्तं च पाणं च, आहरित्तु पणामए ?॥ पडिकम्म को कुणई, अरण्णे मियपक्खिणं ॥
जया य से सुही होइ, तया गच्छइ गोयरं । एगभूओ अरण्णे वा, जहा उ चरई मिगो ।
भत्तपाणस्स अट्ठाए, वल्लराणि सराणि य॥ एवं धम्म चरिस्सामि, संजमेण तवेण य॥
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