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अ० ६. धुत, उ० १. सूत्र २६-२६
३११ छन्दोपनीताः'-इच्छावशानुगाः, अध्युपपन्नाः - प्रति हमारा ममत्व है। इस प्रकार आक्रन्दन करते हुए वे रुदन करते आसक्ताः, आक्रन्दकारिणः रुदन्ति । २७. अतारिसे मुणी, णो ओहंतरए, जणगा जेण विप्पजढा । सं०-अतादृशः मुनिः नो ओघंतरको जनकाः येन विप्रत्यक्ताः । वे कहते हैं—'ऐसा व्यक्ति न मुनि हो सकता है और न संसार-सागर का पार पा सकता है, जिसने माता-पिता को छोड दिया है।'
भाष्यम् २७ रुदन्तस्ते मातापित्रादयः कथयन्ति
रुदन करते हुए वे माता-पिता आदि कहते हैं-जिसने मातायेन जनकाः विप्रत्यक्ताः , तादृशो न मुनिर्भवति, न च पिता को छोड़ दिया है, वह न मुनि होता है और न ओघंतर-संसार ओघंतरः-संसारसमुद्रपारगामी भवति ।
__समुद्र का पारगामी होता है। २८. सरणं तत्थ णो समेति । किह णाम से तत्थ रमति ? .
सं० -शरणं तत्र नो समेति । कथं नाम स तत्र रमते ? वह उसकी शरण में नहीं जाता। ज्ञानी पुरुष गहवास में कैसे रमण करेगा?
भाष्यम २८-स पराक्रममाणः पुरुषः मातापित्रादीनां संयम में पराक्रम करने वाला वह पुरुष माता-पिता का आक्रन्दनमाकर्ण्य न तेषां शरणं समेति । स निविण्ण- आक्रन्दन सुन कर उनकी शरण में नहीं जाता। वह कामभोगों से कामभोगः कथं नाम तत्र गहवासे रमते, धृति करोतीति विरक्त व्यक्ति गृहवास में कैसे रमण करेगा, धृति कैसे रख पाएगा ? यावत् । २६. एयं णाणं सया समणुवासिज्जासि ।-त्ति बेमि । सं०-एतद् ज्ञानं सदा समनुवासयेः । इति ब्रवीमि । मुनि इस ज्ञान का सदा सम्यग् अनुपालन करे। ऐसा मैं कहता हूं।
भाष्यम् २९-द्वे गती-एका सामाजिकसंबंधान् दो गतियां हैं-एक है सामाजिक संबंधों को विस्तार देने वितन्वाना, अपरा च आत्मानुसन्धानपरायणा । ये सन्ति वाली और दूसरी है आत्मा का अनुसंधान करने वाली । जो आत्मा आत्मानमन्वेष्टमद्यताः तैरात्मानं विहाय न केनापि का अनुसंधान करने के लिए उद्यत हैं, उन्हें आत्मा को छोड़कर किसी संबंध:कार्यः, न च क्वापि शरणमन्वेषणीयं, केवलं के साथ भी सम्बन्ध नहीं करना चाहिए और न कहीं शरण की खोज आत्मन्येव आरमणीयमिति परमतत्त्वमिह उपदिष्टं करनी चाहिए। उन्हें केवल आत्मा में ही रमण करना चाहिए। भगवता।
इस परम तत्त्व का उपदेश भगवान् महावीर ने यहां दिया है।
२. वृत्तिकृता 'अन्मोववण्णा' इति पाठः व्याख्यातः-त्वयि चाभ्युपपन्नाः । (आचारांग वृत्ति, पत्र २१७)
१. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २०८ : छंदो-इच्छा, छंदा
उवणीया छंवेण वा उवणीतं, जं भणितं-अण्णोण्ण
वसाणुयत्तं । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २१७ : तवाभिप्रायानु
वतिनः।
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