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आचारांगभाष्यम्
और पेशी से धन-मांसपेशी उत्पन्न होती है। तत्र यावत् कललं तावदभिसम्भूताः, पेशो यावद् कलल तक की अवस्था का वाचक है 'अभिसंभूत' । पेशी अभिसञ्जातः, ततः साङ्गोपाङ्गस्नायुशिरोरोमादि- तक की अवस्था का वाचक है 'अभिसंजात' और फिर अंग, उपांग, क्रमाभिनिवर्तनादभिनित्ताः , ततः प्रसूताः सन्तः स्नायु, सिर, रोम आदि के क्रमिक निवर्तन से अभिनिवृत्त अवस्था अभिसंवृद्धाः ।'
होती है। फिर प्राणी जन्म लेकर अभिसंवृद्ध होते हैं, बढते हैं । तेषु अभिसंवृद्धेषु केचित् किञ्चिद् निमित्तमासाद्य उन अभिसंवृद्ध व्यक्तियों में कुछ व्यक्ति किसी निमित्त को निसर्गतो वा अभिसंबुद्धा भवन्ति । चूणौं अभिसंबोधि- पाकर या स्वाभाविक रूप से प्रतिबुद्ध होते हैं। चूर्णि में संबोधिकाल कालः नानारूपोऽस्ति निदर्शितः
नानारूपों में निर्दिष्ट हैअभिसंबुद्धा जाव अट्ठवरिसाओ आरम सतिवरिसेणं देसूणा १. आठ वर्ष की अवस्था से आरम्भ होकर सौ वर्ष की वा पुण्यकोडी, अभिसंबुद्धा तित्थगरा, सम्वे अभिसेगकाल एवं
अवस्था तक अथवा कुछ कम पूर्व कोटि वर्ष तक व्यक्ति संबुद्धा, सेसावि केई अपडिवडितेणं सम्मत्तेणं गन्भं वक्कमंति, अभिसंबुद्ध रहते हैं। केसिचि गब्मट्ठाणं जाइसरणेणं उप्पज्जइ।'
२. अभिसंबुद्ध सभी तीर्थंतर अभिषेक काल से ही संबुद्ध होते
३. शेष कुछ जीव अप्रतिपाती सम्यक्त्व के साथ गर्भ में प्रवेश ___ करते हैं।
४. कुछ जीव जातिस्मृति ज्ञान के साथ गर्भ में आते हैं। ते अभिसंबुद्धाः सन्तः बालत्वे यावद् वृद्धत्वे अभि
वे अभिसंबुद्ध मनुष्य बाल्य अवस्था से लेकर बुढापे तक किसी निष्क्रान्ता भवन्ति-प्रव्रज्यां गृह्णन्ति, अनुपूर्वेण ते भी अवस्था में अभिनिष्क्रमण करते हैं -प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं । क्रमशः महामुनयो' भवन्ति। उक्तञ्च वृत्ती
साधना करते-करते वे महामुनि बन जाते हैं। वृत्ति में कहा हैततोऽधीताचारादिशास्त्रास्तदर्थभावनोपबृंहितचरणपरिणामा वे मुनि आचारांग आदि शास्त्रों को पढकर, उसके अर्थ को अनुपूर्वेण शिक्षकगीतार्थक्षपकपरिहारविशुद्धिकैकाकिविहारिजिन- हृदयंगम कर अर्थ की भावनाओं से अपने चारित्र के परिणामों को पुष्ट कल्पिकावसाना मुनयोऽभूवन्निति ।
करते हैं। तत्पश्चात् वे क्रमशः शिक्षक, गीतार्थ, तपस्वी, परिहार विशुद्धि वाले, एकल-विहार-प्रतिमा को स्वीकार करने वाले होकर
अन्त में जिनकल्पी मुनि बन जाते हैं। २६. तं परक्कमंतं परिदेवमाणा, 'मा णे चयाहिं' इति ते वदंति। छंदोवणीया अज्झोववन्ना, अक्कंदकारी जणगा
रुवंति। सं०-तं पराक्रममाणं परिदेवमाना: 'मा अस्मान् त्यज' इति ते वदन्ति । छन्दोपनीताः अध्युपपन्नाः आक्रन्दकारिणो जनकाः रुदन्ति । वह संबुद्ध होकर संयम में गतिशील होता है, तब उसके माता-पिता विलाप करते हुए कहते हैं-तुम हमें मत छोडो। हम तुम्हारी इच्छा के अनुसार चलने वाले हैं, तुम्हारे प्रति हमारा ममत्व है । इस प्रकार आक्रंदन करते हुए वे रुदन करते हैं।
भाष्यम् २६–अभिनिष्क्रमणकाले जायमानामवस्थां अभिनिष्क्रमण के समय होनेवाली अवस्थाओं का वर्णन वर्णयति सूत्रकारः-तं अभ्युद्यतविहाराय पराक्रममाणं सूत्रकार करते हैं-संयम-ग्रहण के लिए उद्यत उस व्यक्ति को दृष्ट्वा जनकाः-मातापित्रादयः परिदेवमाना:- देखकर माता-पिता आदि विलाप करते हुए यह कहते हैं--तुम हमको विलपन्तः इति वदन्ति-त्वं अस्मान् मा त्यज । ते मत छोड़ो। हम तुम्हारी इच्छा के अनुसार चलने वाले हैं। तुम्हारे १. आचारांग वृत्ति, पत्र २१६ ।
३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २०८ : महंत जेण मुणितं जीवादि २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २०८।
__ वा सो महामुणी। (ख) वृत्तौ (पत्र २१६) अभिसंबुद्धस्य अवस्यानां नानारूपत्वं ४. आचारांग वृत्ति, पत्र २१६-२१७ ।
नास्ति प्रदर्शितम्। धर्मश्रवणयोग्यावस्थायां वर्तमाना धर्मकयादिकं निमित्तमासाद्योपलब्धपुण्यपापतया अभिसंबुद्धाः।
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