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आचारांगभाष्यम
नासेवनीयः। यदा धर्माचरणं प्रति अनुत्साहात्मकः आसेवन नहीं करना चाहिए । जब धर्माचरण के प्रति अनुत्साहात्मक प्रमादो जागर्ति तदा अशुभयोगस्य प्राबल्ये उदीरणा- प्रमाद जागता है तब अशुभयोग की प्रबलता में उदीरणा तथा संक्रमण संक्रमणप्रयोगोऽपि जायते । तेन शुभकर्मणो विलयः का प्रयोग भी होता है। उदीरणा से शुभ कर्मों का विलय और अशुभे परिवर्तनं चापि संभवति । तेनेति सत्यं यत्र प्रमादः संक्रमण से शुभ का अशुभ के रूप में परिवर्तन भी हो सकता है । तत्र भयम् । अप्रमाददशायां अस्य विपर्ययो भवति- इसलिए यह सच है कि जहां प्रमाद है वहां भय है । अप्रमाद दशा में अशुभकर्मणः उदीरणाकरणेन क्षयः तथा संक्रमेण अशुभस्य इसका विपर्यय होता है-उदीरणा से अशुभ कर्म का क्षय तथा संक्रमण शुभे च परिवर्तनम् ।
से अशुभ का शुभ-रूप में परिवर्तन । २४. जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं । सं०-ज्ञात्वा दुःखं प्रत्येकं सातम् । दुःख और सुख व्यक्ति का अपना-अपना होता है-यह जान कर प्रमाव न करे।
भाष्यम् २४-दुःखं सुखं च प्रत्येकं भवति, न च दुःख और सुख व्यक्ति का अपना-अपना होता है । कोई किसी कश्चित् सुखं दुःखं वा आदातुं समर्थो भवति इति ज्ञात्वा के सुख या दुःख को बंटा नहीं सकता, यह जानकर व्यक्ति प्रमाद न प्रमादं न कुर्यात् ।'
करे। २५. पुढोछंदा इह माणवा, पुढो दुक्खं पवेदितं । सं०-पृथक्छंदाः इह मानवाः, पृथक् दुःखं प्रवेदितम् । इस जगत् में मनुष्य नाना प्रकार के अध्यवसाय वाले होते हैं । उनका दुःख भी नाना प्रकार का होता है।
भाष्यम् २५-प्राणिनां दुःखं सातं च प्रत्येकं भवति, प्राणियों का दुःख और सुख अपना-अपना होता है। इसका अस्य हेतुरस्ति तदुपादानभूतस्य अध्यवसायस्य प्रत्येकत्वं, कारण यह है कि सुख और दुःख के उपादानभूत अध्यवसाय इति वस्तुसत्यमिह प्रतिपादितमस्ति । इह मानवा: अपने-अपने होते हैं - यह वस्तुसत्य प्रस्तुत आलापक में प्रतिपादित पृथक्छन्दा:-नानाध्यवसायाः वर्तन्ते, अतस्तेषां दुःखं है। इस जगत् में मनुष्य नाना अध्यवसाय वाले हैं, इसलिए सातमपि च नानारूपेण संकल्पितमस्ति । केचिद् आरम्भं उनका दुःख और सुख भी नानारूप वाला होता है। कुछ मनुष्य सखं मन्यन्ते केचिच्च दुःखम् । केचित् अनारम्भं दुःखं आरंभ-हिंसा को सुख मानते हैं और कुछ दुःख । कुछ व्यक्ति मन्यन्ते केचिच्च सुखम् । एवं दुःखसुखयोः संकल्पः अनारंभ-अहिंसा को दुःख मानते हैं और कुछ सुख । इस प्रकार एकविधो नास्ति। तेन उत्थितः पुरुषः दुःखं सुखं च दुःख और सुख की कल्पना एक प्रकार की नहीं होती, इसलिए जो प्रत्येकं ज्ञात्वा अनारम्भजीवी भवेत् ।
व्यक्ति साधना के लिए उत्थित हो चुका है वह दुःख और सुख को
व्यक्ति-व्यक्ति का जानकर अनारंभजीवी-अहिंसाजीवी बने । छन्दः-इच्छा अध्यवसायः संकल्पश्च ।
छन्द का अर्थ है-इच्छा, अध्यवसाय, संकल्प । २६. से अविहिंसमाणे अणवयमाणे, पुट्रो फासे विप्पणोल्लए। सं०-स अविहिसन् अनपवदमानः स्पृष्टः स्पर्शान् विप्रणोदयेत् । वह उत्थित पुरुष किसी की हिंसा न करे, सूक्ष्म जीवों के अस्तित्व को अस्वीकार न करे। जो कष्ट प्राप्त हों, उन्हें समभाव से सहन करे।
भाष्यम् २६-आरम्भजीवी पुरुष: हिंसायां प्रवर्तते । आरंभजीवी मनुष्य हिंसा में प्रवृत्त होता है। जिसने येन अनारम्भजीवित्वस्य संकल्पः कृतः स उत्थितः पुरुषः अनारंभजीवन जीने का संकल्प किया है वह साधना के लिए उत्थित न प्राणिनो हिंस्यात् । जीवलोको द्विविधः-सूक्ष्मः पुरुष प्राणियों की हिंसा न करे । जीवलोक दो प्रकार का है--सूक्ष्म स्थूलश्च । तत्र स्थूलजीवलोकस्य हिंसायाः परिहारः और स्थूल । स्थूल जीवों की हिंसा का परिहार करना उतना' दुःसाध्य १. द्रष्टव्यम्-आयारो, २।२२ । २. आचारांग वृत्ति, पत्र १८६ : पस्य बत्वं तस्यापि प्राकृतत्वाद् आर्षत्वान् वा लोपः।
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